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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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अध्याय 9  ताई महाराज का मामला

यूनानी दार्शनिक हैरीडोटस ने कहा था कि अवसर ही मनुष्य के भाग्यविधाता हैं। ऐसा ही एक संयोग था जब तिलक जमानत पर छूटकर पूना आए। एक ऐसी घटना घट गई, जो जीवन-भर उनके लिए चिन्ता का कारण बन गई। जमानत भी संयोग की ही बात थी, क्योंकि पहले तीन न्यायाधीशों ने तीन अवसरों पर उन्हें अस्वीकार कर दिया था। यह भी एक और संयोग ही था जो तिलक अपना कारबार दुरुस्त करने और वसीयतनामा लिखने पूना गए। लेकिन वहीं पर वह एक दूसरे आदमी के ऐसे वसीयतनामे के चक्कर में फंस गए जिसके लिए उन्हें बहुत दिनों तो दीवानी मुकदमेबाजी में लगे रहना पड़ा और फिर फौजदारी के मुकदमे में। इसमें एक विधवा की खब्तमिजाजी सरकारी प्रतिशोध का माध्यम बनी।

डेक्कन के अव्वल दर्जे के सरदार बाबा महाराज से मिलने जब तिलक 7 अगस्त, 1897 को गए तो वह भयंकर हैजे से ग्रस्त मृत्युशय्या पर पड़े थे। अपने मित्र का अन्तिम अनुरोध स्वीकार कर तिलक खापर्डे, कुम्भोजकर और नागपुरकर के साथ-साथ उनके इस्टेट का एक ट्रस्टी बनने को राजी हो गए। बाबा महाराज ने अपने वसीयतनामे में ये हिदायतें साफ-साफ कर दी थीं : ''मेरी पत्नी गर्भवती है। यदि वह किसी कन्या को जन्म दे या यदि उन्हें कोई पुत्र पैदा हो, किन्तु वह जल्दी ही मर जाए, तो मेरे वंश का नाभ चालु रखने के लिए ट्रस्टियों की सलाह से मेरी पत्नी एक दत्तक पुत्र को शास्त्रानुसार गोद लेगी और जब तक वह दत्तक पुत्र बालिग न होगा तब तक उस दत्तक पुत्र की ओर से मेरी चल और अचल सम्पत्ति का प्रबन्ध ये ट्रस्टी ही करेंगे।''

उस समय (सामान्यतया ताई महाराज के रूप में सुपरिचित) बाबा महाराज की पत्नी सकवार बाई की अवस्था केवल 15 वर्ष थी। अपने पति की मृत्यु के पांच मास पश्चात उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जो कुछ दिनों बाद ही मर गया। उस समय तिलक जेल में थे और अन्य दो ट्रस्टी पूना से बाहर रहते थे। फलतः उनकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर लोभी नागपुरकर ने, जो उस इस्टेट का किरानी था, ताई महाराज को समझाया कि वह उसके हो पुत्र को गोद ले लें। पहले तीन वर्ष तो उस इस्टेट का कारबार ठीक ढंग से चलता रहा। तिलक जब जेल में ही थे, तभी वसीयतनामे की जांच अन्य ट्रस्टियों ने की और पाया कि इस्टेट कर्ज से लदा हुआ है और बंधकों को छुड़ाने के लिए भारी मितव्ययिता आवश्यक है। परिणाम यह हुआ कि कर्जदारों को सन्तुष्ट करने के लिए तिलक को अपनी निजी सम्पत्ति तक को गिरवी रखना पड़ा। ट्रस्टियों ने कम खर्च करने पर जो जोर डाला, वह ताई महाराज को खलता था और इससे नागपुरकर को उनके कान भरने का अवसर मिल गया। उसने उनसे कहा कि आपका जायदाद पर बराबर का अधिकार है और ट्रस्टियों का नियंत्रण तथा भावी दत्तक पुत्र द्वारा आपकी सम्पत्ति का अपहरण अनुचित है।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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