जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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4 अप्रैल, 1902 को दिए गए अपने निर्णय में उसने प्रमाणित वसीयतनामे को रद्द करने के अतिरिक्त औरंगाबाद में लिए गए गोद को अवैध ठहराया और तिलक पर दण्ड प्रक्रिया संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) की धारा 476 के अन्तर्गत सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा चलाने का आदेश दिया। उनके विरुद्ध ये सात अभियोग लगाए गए कि उन्होंने-(1) नागपुरकर पर विश्वासघात का कुठा आरोप लगाया; (2) औरंगाबाद की यात्रा के खर्च के हिसाब में रद्दोबदल करके झुठा साक्ष्य देने की जालसाजी की थी; (3) इस सम्बन्ध में जाली कागजात तैयार किए थे; (4) साक्ष्य पत्रों को जाली जानते हुए भी उनका उपयोग किया और अदालत की आंखों में यह बताकर धूल झोंकने का प्रयत्न किया कि वे सच्चे हैं; (5) गोद-संबंधी सही कागजात का गलत ढंग से उपयोग किया; (6) गोद-संबंधी सही कागजात पर ताई महाराज के हस्ताक्षर होने के बाद जालसाजी से कुछ और जोड़कर उनका गलत उपयोग किया और (7) जानबूझकर झूठा साक्ष्य दिया।
इस लम्बे अभियोगपत्र से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति को वे अब तक देवता समझते थे, वह आज एक जवान और अबला विधवा को धोखा देने की साबित कर रहा है। निश्चय ही तिलक के जीवन का यह घोर अन्धकारभय क्षप्प था। उस समय से भी अधिक अंधकारमय तब जब पांच साल पहले वह राजद्रोह के अपराधी थे। फिर भी ऐसे क्षण में यदि उनकी लोकसिद्ध मानसिक शांति गायब हुई तो मात्र क्षण-भर को ही, क्योंकि उन्हें अपने उद्देश्य की पवित्रता और कार्य के औचित्य पर पूरा विश्वास था। फलतः इस मुकदमे की लम्बी सुनवाई के दौरान कहोने अपने विरुद्ध लगाए गए असंगत अभियोगों को गलत साबित करने के लिए प्रमाण-स्वरूप कागज की एक भी चिट जानबूझकर पेश नहीं की।
इसी बीच 19 अगस्त, 1901 को अवांछनीय व्यक्तियों के बहकावे में आकर और ऐस्टन से मिलकर ताई महाराज ने कोल्हापुर शाखा के बाला महाराज नामक लड़के को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया। इस अवसर पर कोल्हापुर के महाराज भी उपस्थित थे। पूना-स्थित अपने घर में ही यह समारोह आयोजित करने का प्रयास ताई महाराज पहले कर चुकी थीं, किन्तु तिलक की चौकसी और दृढ़ता से वह सफल न हो सका था। इससे एक और जटिल समस्या पैदा हो गई और तिलक ने दूसरे गोद को अवैध घोषित कराने तथा जगन्नाथ महाराज के गोद लिए जाने को संपुष्ट करार दिए जाने के लिए पूना की दीवानी अदालत में एक मुकदमा दायर किया।
ऐस्टन के निर्णय के विरुद्ध तिलक ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने प्रमाणित वसीयतनामे से सम्बधित फैसले को पलट दिया, किन्तु तिलक के विरुद्ध फौजदारी का मुकदमा चलाने के ऐस्टन के फैसले को इस आधार पर रद्द करने से इन्कार कर दिया कि अभी इस मामले में वह हस्तक्षेप नहीं कर सकता। फलतः सरकार ने तिलक के विरुद्ध प्रमाण एकत्र करने के लिए दो पुलिस अफसर नियुक्त किए। उन्होंने जो रिपोर्ट दी, उससे मुकदमे को बल नहीं मिलता था। अतः उसे तिलक के पक्ष में दी गई रिपोर्ट बताकर मुकदमे की सुनवाई के लिए एक विशेष मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया। मुकदमा चलाने के खर्च के लिए सरकार ने तीस हजार रुपये भी मंजूर किए जिससे स्पष्ट हो गया कि तिलक का असली दुश्मन कौन है। सरकार ने ताई महाराज को केवल अपना हथियार ही नहीं बनाया, बल्कि तिलक को तंग करने के लिए मुकदमा भी चलवाया। राजनीतिक बदला लेने की भावना इससे अधिक और क्या हो सकती थी।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट