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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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फिर विशेष मजिस्ट्रेट ने तो देखते-देखते संकेत-मात्र से मुकदमे का फैसला कर दिया और दो अभियोगों पर तिलक को अपराधी करार देकर डेढ़ साल की कड़ी कैद और एक हजार रुपये के जुर्माने की सजा दे दी। उसे उन्हें जेल भेजने की इतनी जल्दी थी कि उसने उस दिन उन्हें अपील करने की भी अनुमति नहीं दी। जेल ले जाते समय तिलक को मामूली कैदी की भांति हथकडी पहनाई गई और इससे सारे देश को बढ़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ। अपील करने पर दौरा अदालत ने सजा तो रह नहीं की, अलबत्ता उसे घटाकर 6 महीने कर दी। किन्तु उच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया, सजा रह कर दी और उन्हें सभी अभियोगों से बरी कर दिया। दौरा अदालत में चले इस मुकदमे के एक विशेष पक्ष का जिक्र करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि 'यह दण्ड-न्याय की दक्षता के सभी सिद्धान्तों के विपरीत है।'

तिलक अन्ततः निर्दोष सिद्ध हुए, किन्तु जब से ताई महाराज (जो इस बीच मर चुकी थीं। ऐस्टन के हाथ का खिलौना बनी थीं, तब से चार वर्षों तक तिलक को अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ा था। लेकिन इससे आग में तपे सोने के समान उनका चरित्र और भी अधिक मिर्मल, और भी अधिक आभापूर्ण ही हुआ था। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था : ''इस मुकदमे में मेरी सारी शारीरिक और मानसिक शक्ति वर्षों तक व्यर्थ ही नष्ट हुई, लेकिन 'अन्त भला, तो सब भला।' इसलिए हम लोगों को यह मानकर ही शांतिपूर्वक अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए कि सुख और दुख केवल भाग्य के खेल हैं।''

सितम्बर 1901 में उन्होंने जगन्नाथ महाराज के गोद लिए जाने की संपुष्टि के लिए जो दीवानी मामला दायर किया था, वह अभी तक विचाराधीन था और उस पर कोई भी फैसला नहीं हुआ था। तिलक के लिए तो यह मुकदमा कानूनी महासमर सिद्ध हुआ जो पूना की दीवानी अदालत से आरम्भ होकर बम्बई उच्च न्यायालय से गुजरता हुआ प्रिवी काउंसिल तक पहुंचा। 31 जुलाई, 1906 को पूना की दीवानी अदालत ने इस पर तिलक के पक्ष में फैसला दिया था, किन्तु 1910 में जब तिलक माण्डले में कैद थे तब उच्च न्यायालय ने इस फैसले को पलट दिया और अन्त में प्रिवी काउसिल ने 26 मार्च, 1915 को अपना पूरा-का-पूरा निर्णय तिलक के ही पक्ष में दिया। प्रिवी काउंसिल के न्यायाधीशों ने बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा इस दीवानी मुकदमे में फौजदारी मुकदमों की गवाहियों को पेश करने की अनुमति देने की तीखी आलोचना की :

''इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाने से अन्याय होने का डर है, क्योंकि किसी दीवानी मुकदमे की सुनवाई साधारण रीति से होनी चाहिए और उसका निर्णय उसमें पेश साक्ष्य के आधार पर ही करना चाहिए। फौजदारी के इस मुकदमे की साक्षी को सच या झूठ सिद्ध करना अनुचित था। हम लोगों को यह भी बताया गया कि झूठा बयान देने का अभियोग अन्त में निराधार सिद्ध हुआ। अभियोग चाहे सिद्ध हुए या नहीं, इस दीवानी मुकदमे में फौजदारी के मुकदमे को घुसेड़ना गैर-कानूनी था।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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