जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
वास्तव में भूल मुकदमा ही अवैध से भी अधिक अवैध और अनाचारपूर्ण था जिसमें तिलक से बदला लेने और उनके व्यक्तिगत चरित्र को कलंकित करके उनकी राजनीति ख्याति को विनष्ट करने की फिराक में अंधी हुई सरकार ने भयंकर भूल की थी। यह तो तिलक के बेजोड़ साहस और ईश्वर पर उनके अनन्य विश्वास का ही फल था जो तेईस साल तक चले ताई महाराज के मुकदमे के दौरान वह जीवित रहे। और अजीब बात तो यह कि प्रिवी काउंसिल के निर्णय के बाद भी इसका अन्त नहीं हुआ। एक-न-एक चरखा चलता रहा, क्योंकि बम्बई सरकार ने इस डिग्री के इजराय में एक-न-एक बहाने लगाकर देर की। फलतः कोर्ट ऑफ वार्डस् ने फरवरी 1917 में जगन्नाथ महाराज के हाथ ही इस्टेट सौंपा।
तब भी कोल्हापुर राज्य की ओर से उठाई गई आपत्ति का निर्णय शेष था। जहां तक कोल्हापुर राज्य-क्षेत्र में स्थित जगन्नाथ महाराज की जायदाद का सम्बन्ध था, राज्य सरकार केवल यही नहीं समझती थी कि प्रिवी काउंसिल का फैसला उस पर बन्धनकारी नहीं है, बल्कि वह यह भी दावा करती थी कि उन्हें जो जायदाद विरासत के तौर पर ब्रिटिश क्षेत्र में मिली है, वह मूलतः उसका ही निजी इनाम है और वह अब कोल्हापुर राज्य को ही पुनः प्राप्त होनी चाहिए। वह बाला महाराज को ही बाबा महाराज का दत्तक पुत्र मानती रही। फलतः कोल्हापुर की जायदाद उन्हें ही दी गई। कोल्हापुर राज्य के इस दीवानी दावे को बम्बई उच्च न्यायालय ने तिलक के देहान्त के ठीक दस दिन पहले खारिज किया।
और जगन्नाथ महाराज को 'सरदार' की खान्दानी खिताब तो तिलक की मृत्यु के कई वर्ष बाद ही जाकर मिली। ताई महाराज का मुकदमा, जिसमें तिलक को अपने जीवन के लगभग एक-तिहाई भाग तक परेशान होने के साथ-साथ कैद में रहना और भयंकर राजनीतिक संघर्ष का सामना करना पड़ा, एक कठिन अग्नि-परीक्षा थी। खैर कहिए जो वह एक कर्मयोगी की तरह धैर्य और शान्ति से इससे गुजर गए। इस मुकदमे के दौरान उन्होंने जिस ईमानदारी, औचित्य और साहस का परिचय दिया, वह स्तुत्य है और उससे इनके सम्मान में चार चांद लग जाते हैं।
तिलक के राजनीतिक कार्यकलाप का, जिसमें राजद्रोह के अपराध में उनके जेल जाने से व्यवधान उपस्थित हो गया था, प्रसंग आरम्भ करने के पहले 1898 से 1904 के बीच घटित कुछेक घटनाओं की चर्चा आवश्यक है। सिंहगढ़ में दो मास तक आराम करने के बाद, वह मद्रास गए किन्तु वहां आयोजित कांग्रेस-अधिवेशन में उन्होंने कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। मद्रास से वह अवकाश मनाने लंका गए। केवल यही और बादवाले वर्ष में की गई बर्मा-यात्रा ही उनकी सुखद यात्राएं रहीं जिनमें उन्होंने लंका और बर्मा के निवासियों के रहन-सहन और रीति-रिवाजों का बहुत नजदीक से अध्ययन किया और इससे उनकी यह धारणा और भी पक्की हो गई कि आवश्यक नहीं कि सामाजिक सुधार और राजनीतिक प्रगति एक ही साथ हों। यद्यपि लंका और बर्मा, दोनों सामाजिक दृष्टि से भारत से कहीं आगे थे, फिर भी उनकी राजनीतिक अवस्था भारत के ही समान थी। और सच तो यह कि इन दोनों देशों में राष्ट्रीय जागृति बहुत बाद को आई। अतः पूना में दिए गए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था :
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट