जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
जहां तक तीसरे पक्ष का संबंध था, उदारवादी और उग्रवादी के रूप में भारतीय राजनीतिक विचारधारा के कृत्रिम विभाजन का पर्दाफाश करने के तिलक के सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए। उन्होंने कहा कि इन शब्दों का केवल सामयिक महत्व है। उग्रवाद का विकास एक स्वाभाविक राजनीतिक घटना है। आज के गरम दलवाले ठीक उसी प्रकार कल के नरम विचारों के उदारवादी हो जाएंगे जिस प्रकार आज के उदार विचार वाले कल के नरम विचारवाले थे। 'जब कांग्रेस का जन्म हुआ था, तब दादाभाई को भी उग्रवादी ही समझा जाता था। हमारे लड़के भी बड़ा होने पर अपने को उग्रवादी और हमें उदारवादी बताएंगे और इसी प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी विचारधारा के विकास की यह प्रक्रिया जारी रहेगी।' इस अपील का उदारवादियों पर कोई प्रभाव न पड़ा। उन्हें तो, बस, उदारवादी नीति और ब्रिटिश सरकार की नेकनीयती पर ही पूरा भरोसा था। अब सैद्धान्तिक पहलू के अलावा प्रत्याशित सुधारों की दृष्टि से कांग्रेस पर कब्जा करने की आवश्यकता बड़े जोरों से महसूस की जाने लगी थी।
इस दिशा में आधार तैयार करने के लिए गोखले ने फरवरी-मार्च 1907 में उत्तर प्रदेश और पंजाब का दौरा किया जहां भाषणों में उन्होंने नरम विचारों तथा वैधानिकता के अपने सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला। उनका मत था कि 'जो सुधार हम चाहते हैं, उन्हें लाने के लिए हमें केवल वैधानिक तरीकों से ही काम लेना चाहिए। यह केवल हमारी व्यवस्थित प्रगति के लिए ही नहीं, बल्कि दमन-चक्र से बचने के लिए भी आवश्यक है।' ये भ्रामक विचार बड़े ही साधारण रूप से व्यक्त किए गए थे, लेकिन जैसा कि तिलक ने बताया, ये विचार केवल ब्रिटेन-जैसे लोकतांत्रिक देशों पर ही लागू होते हैं जहां सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी है और अपने मतदाताओं का विश्वास खो देने पर गद्दी से उतार दी जाती है। ''क्या इस तरह की कोई चीज भारत में हैं? ''-तिलक ने पूछा : ''क्या गोखले या उनका नरम दल हमें भारत का संविधान दिखला सकता है जिससे हमारी जनता को यह अधिकार प्राप्त हो?''
''भारत सरकार ब्रिटिश संसद की ही देन है और उसी के प्रति उत्तरदायी भी है, न कि भारतीय जनता के प्रति। भारतीय स्थिति का कठोर सत्य यही है कि जो कोई भी सरकार के विरुद्ध जाएगा, उसे दण्डित करने का अधिकार सरकार को है जिसके सभी नियम-विनियम भारतीय दण्ड-संहिता (इण्डियन पेनल कोड) में मौजूद हैं। पूरी गम्भीरता से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि गोखले जिस संविधान की बात करते हैं, वह तो दरअसल भारतीय दण्ड-संहिता है। यदि वह और नरम दलवाले मित्र यह कहें कि हमारा आन्दोलन इस संहिता की सीमाओं के अन्दर ही सीमित रहे तो यह तर्क हमारी समझ में जरूर आ सकता है। तब इसका अर्थ यही होगा कि हमारा यह आन्दोलन एकदम नियमानुकूल, वैध और न्यायोचित हो। यह बात तो समझ में आती है।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट