जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में भी तिलक ने बड़ा काम किया। उनका प्रथम प्रेम शिक्षा से ही था। वह 'डक्कन एजुकेशन सोसाइटी' के संस्थापकों में एक थे। उस समय निजी शिक्षा संस्थाएं भी सरकार के अधीन थीं। इसके लिए सरकार ने कुख्यात रिसले-परिपत्र जैसे कई स्पष्ट और प्रच्छन्न साधनों का सहारा लिया था। तिलक ने ऐसी संस्थाओं के संचालकों से कहा कि सरकारी अनुदान न मिलने पर भी वे अपनी स्वतन्त्रता और आत्म-सम्मान को बनाए रख सकते हैं। जब एक स्वदेशी-सभा में भाग लेने के कारण विनायक दामोदर सावरकर पर, जो फर्ग्यूसन कॉलेज के विद्यार्थी थे, प्रिंसिपल ने दस रुपये का जुर्माना किया और उन्हें छात्रावास से निकाल बाहर किया, तब तिलक ने कहा कि पूना में इस प्रकार की अनुशासनिक कार्रवाई कहां तक संगत है, जब गोखले मान्चेस्टर में ब्रिटिश माल के बहिष्कार का औचित्य सिद्ध कर रहे हैं। उन्होंने अंगरेजी के उस अध्यापक की भी बड़ी निन्दा की, जिसने विद्यार्थियों को स्वदेशी आन्दोलन में भाग न लेने का आदेश दिया था। उन्होंने अनुशासन के नाम पर विद्यार्थियों पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने की तीव्र भर्त्सना की और व्यंग्यपूर्वक कहा कि मुझे विद्यार्थियों के सरकारी स्कूलों में जाने से कोई विरोध नहीं, बशर्ते उन्हें मेरे भाषणों को सुनने से न रोका जाए।
1906 में तिलक ने महाराष्ट्र विद्या प्रसारक मण्डल की स्थापना मंज सहायता की, जिसके तत्वावधान में पहले कोल्हापुर में और इसके बाद तलेगांव में चल रहा समर्थ विद्यालय जब आर्थिक संकट में पड़ा, तब उन्होंने दौरा करके और जगह-जगह भाषण देकर इस विद्यालय के लिए 20 हजार रुपये एकत्र किए। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के लिए एक विश्वविद्यालय खोलने का भी प्रस्ताव किया था, किन्तु यह विश्वविद्यालय खुल नहीं सका।
तिलक के अनुसार, राष्ट्रीय शिक्षा वही थी, जिससे राष्ट्र को भली-भांति जानने में किसी को सहायता प्राप्त हो। यह कार्य उस समय के स्कूल और कॉलेज नहीं कर पाते थे। उन्होंने बताया कि अमेरिका में स्वाधीनता का घोषणा-पत्र बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया जाता है। भारत में ऐसी शिक्षा राजद्रोहात्मक मानी जाएगी। उदाहरणार्थ, हमारे विद्यार्थियों को यह मालुम नहीं कि भारत से प्रतिवर्ष 6 करोड़ रुपए चीनी के आयात में बाहर चले जाते हें। यह सब सरकार की औद्योगिक नीति के कारण ही होता है, परन्तु हम लोगों को इसका पता नहीं। हम लोगों ने यह बातें कॉलेज छोड़ने के 25 वर्ष बाद ही जानी हैं। हमारे युवकों को ये बातें अपनी युवावस्था में ही मालूम हो जानी चाहिएं। अन्य देशों में तकनीकी और औद्योगिक शिक्षा सामान्य शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है, किन्तु भारत की शिक्षा-संस्थाओं का उद्देश्य केवल छोटे-मोटे अफसर भर तैयार कर देना है। तिलक मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे और धार्मिक शिक्षाके भी पक्षपाती थे, जिससे लोगों में अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता और आदर का भाव उत्पन्न हो सके।
तिलक यह प्रस्ताव करने में भी आगे रहे कि देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा बने। दिसम्बर 1905 में नागरी प्रचारिणी सभा के सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने कहा था-''एक सामान्य लिपि किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन का अंग है। यदि आप राष्ट्र में एकता लाना चाहते हैं, तो इसके लिए एक भाषा के व्यवहार से अधिक शक्तिशाली और कोई वस्तु नहीं है।'' उनका मत था कि कोई मानक (स्टैण्डर्ड) लिपि किसी ऐसे मानक (स्टैण्डर्ड) समय से भी अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है, जिसे लॉर्ड कर्जन ने उन दिनों सारे भारत में लागू किया था।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट