जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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लाला लाजपत राय और डॉ० रदरफोर्ड, एम. पी., जो कांग्रेस के एक परिदर्शक (विजिटर) थे, जैसे मध्यस्थों ने समझौता कराने का प्रयत्न किया और दोनों दलों के मतभेद दूर करने के लिए कई संयुक्त समितियां गठित करने के सुझाव दिए गए। 26 दिसम्बर की सुबह, जिस दिन अधिवेशन आरम्भ होनेवाला था, तिलक और उनके समर्थकों ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से भेंट की और कहा कि हम लोग अध्यक्ष के चुनाव का विरोध नहीं करेंगे, बशर्ते कि मुख्य प्रस्ताव जैसे-के-तैसे रखे जाएं और उद्घाटन भाषण में इसकी चर्चा की जाए कि जनता लाला लाजपतराय को ही अध्यक्ष पद पर चाहती थी। बनर्जी इस पर तुरन्त सहमत हो गए, किन्तु स्वागत समिति के अध्यक्ष मालवी हठ पकड़ गए। फलतः ऐसा न हुआ।
इसके एक दिन पहले गोखले द्वारा तैयार किया गया कांग्रेस के विधान का प्रारूप तिलक के हाथ पड़ गया। इसमें कांग्रेस का उद्देश्य ''ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य सदस्यों की भांति स्वशासन प्राप्त करना'' बताया गया था, जबकि कलकत्ता अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में वह ''स्वशासित उपनिवेश'' कहा गया था। हो सकता है, यह भूल मामूली हो या अनजाने में हुई हो। जो भी हो, मगर जब गोखले का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया, तो वह उसे बदलने को तैयार हो गए। परन्तु इस साधारण-सी भूल से स्वभावतः नरम दलवालों की नीयत के प्रति शंका और भी दृढ़ हो गई।
और जब 26 दिसम्बर को अधिवेशन आरम्भ होने से थोड़ी देर पहले पंडाल में प्रस्तावों के प्रारूप प्रतिनिधियों के बीच बांटे गए, तब यह शंका और भी गहरी हो गई, क्योंकि हर एक प्रस्ताव में थोड़ा-बहुत परिवर्तन किया गया था। स्वदेशी-संबंधी प्रस्ताव में कलकत्ता में कहा गया था कि लोगों को थोड़ी हानि सहकर भी आयात की हुई वस्तुओं को छोड़कर देशी वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन देना चाहिए। नए प्रस्ताव के प्रारूप में ''थोड़ी हानि सहकर भी'' वाक्यांश नहीं था।
कलकत्ता अधिवेशन में राष्ट्रीय शिक्षा-संबंधी प्रस्ताव में कहा गया था कि ''राष्ट्रीय प्रणाली पर और राष्ट्रीय नियन्त्रण में देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए साहित्यिक, वैज्ञानिक और तकनीकी घोषणा की कि अध्यक्ष के चुनाव का प्रस्ताव पास हो गया। डॉ. रास बिहारी घोष ने तुरन्त उठकर अध्यक्ष के पद से अभिभाषण देना शुरू कर दिया-''भाई प्रतिनिधियो, देवियो और सज्जनो! आप लोगों ने मुझे जो आदर दिया है, उसके प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना प्रथम कर्तव्य समझता हूं।"
एच० डब्ल्यू. नेविन्सन के शब्दों में, जो उस समय वहां उपस्थित थे, ''वह अपने प्रथम कर्तव्य से आगे कभी नहीं गए, मतलब इससे आगे कुछ न कह पाए।'' जिस प्रकार गरजते हुए मेघों से घिरे आकाश में एकाएक बिजली चमक जाती है उसी प्रकार तिलक अध्यक्ष की कुर्सी के सामने खड़े होकर प्रतिवाद और भर्त्सना करते पाए गए। उस शोरगुल में उनका स्वर शान्त, पर दृढ़ता से भरा था। ऐसा लगता था कि उन्हें भविष्य की कोई चिन्ता नहीं। उन्होंने कहा कि मैंने संशोधन की सूचना पहले ही दे दी थी, इसलिए मैं उसे पेश करके ही जाऊंगा।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट