नई पुस्तकें >> वैकेन्सी वैकेन्सीसुधीर भाई
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आज के परिवेश का उपन्यास
ऑफिस से बाहर आकर विकास को चटपटे समोसे की दुकान दिख जाती है। सुबह से शाम होते-होते भूख तो लग ही आती है, ऊपर से इन्टरव्यू का टेंशन और कण्डीडेट्स की भीड़ के शोर-शराबे से निकलकर एक गर्मागर्म चाय और समोसे, शाम की ठण्ड में, जो आत्मा को सुकून देते हैं वो तो आनन्दित होने वाला ही जानता है। चाय की चुस्कियाँ लेते हुये चाय वाले से विकास कहता है- "भाई तुम्हारी चाय में तो मजा आ गया।"
चाय वाला कुछ उम्रदराज था पर बड़ी इज्जत के साथ बोला- "जी भईया जी हम चाय में एक नम्बर की पत्ती डालते हैं, अदरक भी एकदम सूखी और कड़क। आप यहाँ क्या इन्टरव्यू देने आये थे?
विकास : हाँ, तुम्हें कैसे मालूम?
चायवाला : भाई हमारा तो पूरा धन्धा ही इसी आफ़िस से चल रहा है। जबसे खुला है तब से दिन भर में दुगनी आमदनी हो गई है।
विकास : अच्छा, क्या ये नया ऑफिस खुला है?
चायवाला : हाँ भईया जी।
तभी दो चार और विकास के हमउम्र युवक, जिनका भी इन्टरव्यू था, उस चाय वाले की दुकान में पहुँच गये और चाय वाला उनमें व्यस्त हो गया।
विकास उन युवकों की तरफ मुखातिब होकर : -‘कैसा रहा इन्टरव्यू?’
कुछ खास नहीं..उनमें से एक युवक बोला - वही सब पूछ पूछ रहे थे जो हर जगह पूछ्तें हैं। लेकिन इन्टरव्यू पैनल की एक बात समझ में नहीं आई?
विकास : क्या?
युवक : अभी मेन कम्पनी में इन्टरव्यू तो हुआ नहीं है, पर मेडिकल के लिये रुपये जमा कराने को कह रहे थे और गल्फ़ भेजने की बात कर रहे थे।
विकास : मुझसे तो ऐसा कुछ नहीं कहा। हो सकता है आपका प्रोफाइल किसी अन्य कम्पनी के लिये हो।
युवक : हाँ, हो सकता है।
तब तक विकास ने अपनी चाय खत्म की और घर की ओर निकल गया। रास्ते में उसके मन में ख्याल आया कि सुरेश को फ़ोन मिलाकर रात में मिलने का प्रोग्राम सेट कर लेते हैं। लेकिन फिर सोचता है कि घर पहुँचकर थोड़ा आराम कर लिया जाये और शाम को सुरेश के घर सीधे चला जाये।
उधर मुन्नूबाबू दुकान पर बैठे-बैठे विकास का इन्तजार कर रहे थे। यह जानने के लिये, कि इन्टरव्यू में क्या हुआ? हालाँकि विकास को कोई ऐसा आदेश नहीं था कि वो हर बात घर आकर बताये, पर ये आपसी सम्बन्धों को मजबूत बनाता है। हम अपनों को अपनी बातें बताकर और पूछकर अपनेपन को बढ़ाते हैं। विकास कहाँ जा रहा है, क्या कर रहा है, किससे मिल रहा है? इसके बारे में थोड़ा बहुत अपने पिता को बताता रहता था। ये अलग बात है कि मुन्नूबाबू इस तरह से जताते थे जैसे उनको परवाह नहीं है, परन्तु अन्दर ही अन्दर वो सारे बच्चों की खोज खबर रखने की कोशिश करते थे। शायद इसी को ही परिवार कहते हैं।
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