नई पुस्तकें >> वैकेन्सी वैकेन्सीसुधीर भाई
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आज के परिवेश का उपन्यास
मुन्नूबाबू दुकान में बैठे थे। सुबह से शाम हो गई मगर कोई कस्टमर नहीं आया। पिछले एक महीने से शहर में भीषण गर्मी पड़ रही थी। लोग घरों में दुबके हुए हैं। सड़कों और गलियों के बाजारों में एक खामोशी छाई हुई है। कई दुकानदारों की बोहनी तक के लाले पड़े हुए हैं। चिन्ता की लकीरें बाजार में काम करने वाले मजदूरों के माथे पर भी थीं। गाँव छोड़कर रोजी-रोटी के लिये शहर आये मजदूरों के लिये दिन भर की दिहाड़ी के मायने कहीं ज्यादा थे। फिर भी वो तकलीफों में सामान्य बने रहते थे। हर वर्ग, ऐसे समय में, अपनी परिस्थितियों से संघर्ष कर रहा होता है। कुछ थोड़ा बहुत कमा भी लिया तो वो ऊँट के मुँह मे जीरा जैसा होता। ऐसे में मुन्नूबाबू के मन में एक ही ख्याल आता कि किसी तरह विकास की पक्की वाली नौकरी तो लग ही जाये।
"और भाई मुन्नूबाबू, क्या हाल चाल हैं?" – मिश्रा जी ने मुन्नूबाबू की तन्द्रा तोड़ते हुये कहा।
मिश्रा जी मुन्नूबाबू के पड़ोसी और पेशे से अध्यापक हैं। मुन्नूबाबू और मिश्रा जी में खाली समय में अच्छी गुफ्तगू होती है। अचानक मिश्रा जी की आवाज़ सुनकर मुन्नूबाबू ख्यालों से बाहर निकलकर चौंक उठे।
"आइये आइये मिश्रा जी"- मुन्नूबाबू मिश्रा जी से जोश में बोले।
मिश्रा जी : बड़े सन्नाटे में बैठे हो मुन्नूबाबू।
मुन्नूबाबू : हाँ भाई।
मिश्रा जी ने गुफ्तगू को आगे बढ़ाते हुये कहा : सुना है अपने शहर में मेट्रो आने वाली है?
मुन्नूबाबू : हाँ भाई सुन तो हम भी रहे हैं कि शहर मा मेट्रो चलेगी। पर अपना शहर मेट्रो लायक है का मिश्रा जी?
मिश्रा जी : काहे नहीं है। जब चलेगी तब शहर का स्तर भी ऊँचा होगा
मुन्नूबाबू फटते हुए बोले : "कईसन होगा? अभी कल की ही खबर अख़बार में थी कि चमनगंज क्षेत्र में एक महीने पहले पानी की पाइप लाइन डाली गई थी और टेस्टिंग में लीक निकली। और तो छोड़िये, अभी एक हफ्ते पहले की ख़बर भी आप ने सुनी ही होगी कि शहर के सबसे व्यस्ततम बड़े चौराहे पर टेस्टिंग में ही पानी का पाइप फूट गया और चौराहे पर ही फव्वारा फूटने लगा, "विकास का फव्वारा" ऐसा तो हमारा शहर है। अधिकारीयों के साथ-साथ क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों को भी ठेकेदारों के द्वारा किये गये कार्य की गुणवत्ता को चेक करना चाहिये था। सही मायनों में देश से गद्दारी ये भी है। देश का कितना धन और कितना मानव श्रम और समय बर्बाद होता है। आम जनता को इस दौरान जो तकलीफ होती है वो अलग। ऐसे ठेकेदारों को तो चौराहे पर नंगा खड़ा करके कोड़ों से पीटना चाहिये। ई का विकास करेंगे हमारे शहर का, शहर में मेट्रो के खम्भवा लगेंगे कूकरों के मूतन की खातिर।"
मिश्रा जी : "आप भी कैसी बातें करते हैं मुन्नूबाबू जी? सरकार बड़ी कम्पनी को ठेका दिहिन है। ये नाली और खडंजे बनाने वाले मामूली ठेकेदार थोड़े न हैं।"
मुन्नूबाबू : आप देख लीजियेगा मिश्रा जी, चाहे आप कुछऊ कह लो, पर देखना मेट्रो अगर चल भी गई न, तो भी कुछहई दिन बाद डब्बा हवा में ही लटके दिखाई देंगे, और हम अपने नाती-पोतन का बता रहे होंगे कि देखो बिटवा वो मेट्रो का डिब्बवा।‘
मिश्रा जी : आप तो मुन्नूबाबू कुछ अच्छा सोचना ही नहीं चाहते हो।
मुन्नूबाबू : का सोचें मिश्रा जी। शहर की वर्तमान हालत देख लो, कितने पुलों का शिलान्यास हुआ, कितने पुल ज्यों के त्यों अधूरे पड़े हैं। कितने खम्भे गाड़कर छोड़ दिये गए। पूरा शहर ही खोद डाला।
मिश्रा जी : हो जायेगा मुन्नूबाबू.. हो जायेगा, अरे कभी तो सरकार बनाकर देगी न।
मुन्नूबाबू : क्या ये अधिकारी, ठेकेदार, नेता, ई लोग अपने घरों को भी इतने गैरजिम्मेदाराना ढंग से बनाते हैं?
मुन्नूबाबू खाली बैठे-बैठे अपना फ्रस्ट्रेशन ही उतारने में लगे थे।
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