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चन्द्रेश गुप्त का रचना संसार

राजेन्द्र तिवारी

विनोद श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :416
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16997
आईएसबीएन :9781613017357

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विलक्षण साहित्यकार चन्द्रेश गुप्त का समग्र रटना संसार

चन्द्रेश वाया शतदल

घण्टाघर, मुन्नू और चन्द्रेश

 

सातवें दशक के मध्य में हमारी सांध्यकालीन बैठकें घण्टाघर में मुन्नू-टी-स्टाल पर होने लगी थीं। घण्टाघर तब सिटी बस का एक टर्मिनस हुआ करता था। मुन्नू का पूरा नाम राकेश कुमार द्विवेदी। दोस्त, हँसमुख और जिन्दादिल इंसान। सेण्ट्रल स्टेशन से शहर में प्रवेश करते हुए बाएँ हाथ पर पहली इमारत 'कैलाश बिल्डिंग' में मुन्नू की दूकान अभी कुछ दिनों पहले तक तो थी। बायीं ओर कैलाश बिल्डिंग और दायीं ओर सेण्ट्रल धर्मशाला है। चबूतरे पर लकड़ी की गुमटी में 'मुन्नू टी स्टाल' चलता था। ग्राहकों के लिए फुटपाथ पर एक लम्बी मेज और दो बेंचें, साथ ही दो-तीन कुर्सियाँ भी पड़ी रहती थीं। गुमटी के ऊपर बोर्ड लगा था- सी.बी.एस. कैण्टीन। मतलब सिटी बस सर्विस की कैण्टीन। सामने धर्मशाला की दूकानों के बीच एक कमरे में रोडवेज़ के घण्टाघर टर्मिनस का लोकल आफिस था। रोडवेज़ के कर्मचारी मुन्नू की कैण्टीन में चाय-पानी करते थे। इस इलाके में दिन-रात भीड़ रहती है।

रात को यहीं नगर के नवोदित कवियों का जमावड़ा लगता। बैठक लगाने वालों में विनोद तरुण, सुनील बाजपेयी, ज्योतिशंकर शुक्ल, गुरुवेन्द्र तिवारी, ओम अवस्थी, सुरेश सलिल, प्रकाश निर्मल, विजय शंकर मिश्र, कुमार गुप्त, अलबेला, श्रमिक, राजेन्द्र टण्डन, उम्मीद कानपुरी, श्री प्रकाश श्रीवास्तव, शीतला प्रसाद आदि थे। जब यहाँ नियमित रूप से कुछ लोग बैठने लगे तो विजय शंकर दीक्षित 'चंचल' के साथ चन्द्रेश गुप्त भी आने लगे। चन्द्रेश उस समय जासूसी उपन्यासकार के रूप में चर्चित थे। हर महीने उनका एक उपन्यास बाज़ार में आ जाता था। यों इनकी शाम की बैठक रोडवेज़ बस अड्डे के सामने स्वामी दयाल बुक सेन्टर पर हुआ करती थी। वहाँ उस समय के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेम बाजपेयी भी बैठा करते थे। प्रेम बाजपेयी का नाम याद आया तो याद आये कुशवाहा कान्त, प्यारे लाल आवारा, गुलशन नन्दा के नाम भी। ये वो नाम हैं जिनके पाठकों की संख्या का अनुमान लगा पाना कठिन था। चन्द्रेश और प्रेम बाजपेयी जैसे लेखकों को, समझ में नहीं आता, लोग भूल कैसे जाते हैं? जबकि इन्हीं लेखकों को पढ़ने से संस्कार मिलते हैं। आज तमाम बड़े-बड़े कथाकार, उपन्यासकार अपनी छाती पर हाथ रखकर सोचें कि उनमें लिखने की आग जलाने का काम किसने किया? अधिकांश के भीतर से आवाज़ आयेगी कि जासूसी उपन्यासों ने। साथ ही एक और बात भी देखी है कि अधिकतर कथाकारों की पहली किताब कविता-संग्रह के रूप में छपी। जिसके बारे में आज बताते हुए वे न जाने क्यों शर्माते हैं! आज की तारीख़ के बड़े-बड़े लेखक ले लीजिए, उनमें से अधिकांश ने बचपन में इन लेखकों को पढ़ा ज़रूर होगा। लेकिन सच कहने का साहस महान बन जाने के बाद लेखकों में नहीं रह जाता। महानता शायद ऐसे ही छद्म आवरणों से मिलती है। मेरे सम्पर्क में अनेक लेखक आय़े और उनमें से लगभग सबने कविताएँ लिखने से ही आरम्भ किया था अपना साहित्य-सृजन। पर आज शर्माते हैं यह बताने में कि आरम्भ में उन्होंने कविताएँ लिखी थीं! राम जाने ऐसा क्यों है? तथाकथित समझदारी शायद इस बात में होती है कि क्या बताना है दुनिया को और क्या नहीं बताना है!

ख़ैर, चन्द्रेश कविताएँ भी लिखते थे। सो मुन्नू की दूकान पर आ बैठने लगे। रात नौ-दस बजे के क़रीब लोग आने लगते और फिर महफ़िल उखड़ने का कुछ निश्चित नहीं रहता। ऐसी रात्रिकालीन बैठकें शहर में कई जगह हुआ करती थीं। लेकिन घण्टाघर के आस-पास की अड्डेबाजी का आनन्द कुछ और ही था। असंख्य कहानियाँ हर पल यहाँ तैरती रहतीं। यहाँ अगर घड़ी न देखी जाय तो रात कब बीत गयी, पता ही न चलता। शायद इसीलिए प्रशासन ने घण्टाघर की घड़ी ख़राब होने के बाद चलवाने की दिशा में सोचा ही नहीं। दिन-रात एक ही समय बताती है। तभी सम्भवतः एक सी चहल-पहल रहती है। दूकानें खुली रहतीं और शहर में आने-जाने वालों का क्रम कभी टूटता नहीं। जब हमारी आँखें अलसा कर झपकने लगतीं, अनुमान हो जाता कि रात का तीसरा पहर बीत रहा है।

चन्द्रेश के कारण नयी पीढ़ी के कवियों में नए सोच, और जोश का वातावरण बनने लगा था। वे दोसर वैश्य इण्टर कालेज में अध्यापक थे। इसलिए अधिकतर लोग उन्हें 'मास्साब' (मास्टर साहब) पुकारते। बचपन से ही जीवन-संघर्ष में रत, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी रहे चन्द्रेश। परेशानियों से कभी घबराए नहीं। अपने पैरों पर खड़े हुए जीवन-समर में। चन्द्रेश 'प्रोग्रेसिव' विचारों वाले किन्तु थोड़ा 'एग्रेसिव मूड' के भी थे। मेरा अनुमान है कि इन्हें कभी किसी ने उदास, परेशान नहीं पाया होगा। जब मिले मुस्कुराकर चहकते हुए, दिल के साफ़। जिसे प्यार करें उस पर कुछ भी न्योछावर कर दें और जिसे नापसन्द करें उसे कहिए भरी सभा में गरिया दें।

वासन्ती संस्था

यहाँ चन्द्रेश की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका आती है। इनका उठना-बैठना कैनाल रोड पर (घण्टाघर के पास ही) मुन्नीलाल की दूकान पर भी था। टट्टरों से बनी दूकान के आधे हिस्से में चाय और आधे हिस्से में किराये पर पुस्तकों का धन्धा होता था। जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले ख़ासी तादाद में मुन्नीलाल बुक स्टाल के सदस्य थे और वे सभी मास्साब (चन्द्रेश) का सम्मान करते थे। आस-पास के बाज़ारों- गल्ला बाज़ार, गुड़ाही, शक्करपट्टी, दालमण्डी, किराना बाज़ार, नयागंज, बताशा बाज़ार आदि के व्यापारी व दलाल उठते-बैठते थे। यहीं एक साहित्यिक संस्था का गठन हुआ। चन्द्रेश के सामने नयी पीढ़ी के भविष्य का सवाल था, वह भी राही-सिन्दूर से अलग अस्तित्व का। आचार्य सर्वेश शास्त्री भी चन्द्रेश के कारण शाम को टहलते हुए यहीं आ जाया करते थे।

आज जो एक्सप्रेस रोड, घण्टाघर से माल रोड तक, जा रही है यह दरअस्ल नहर थी, जिसके दोनों ओर सड़कें थीं और घण्टाघर से माल रोड तक चार-पाँच पुल बने थे। कानपुर का वह नक्शा कुछ और ही था। नहर के दोनों ओर अस्थायी तौर पर दूकानें थीं। उन्हीं में घण्टाघर से बायें हाथ की पट्टी पर मुन्नीलाल की चाय की दूकान हुआ करती थी।

एक दिन सर्वेश जी व कुछ साहित्यिक रुचि-सम्पन्न व्यापारियों की उपस्थिति में चन्द्रेश ने चर्चा चलायी और संस्था का गठन हो गया। आचार्य सर्वेश ने संस्था का नामकरण किया-'वासन्ती'। बावन दूकान के प्रतिष्ठित व्यापारी देवेन्द्र गुप्त (देवा भैया) संस्था के अध्यक्ष हुए। चन्द्रेश मंत्री और मैं सहमंत्री। शक्करपट्टी के गिरधारी लाल पोद्दार, भगवान दास कानोडिया आदि भी संस्था से जुड़ गये। रामेश्वर गुप्त भी, जो आगे चलकर कानपुर के व्यापार मण्डल के महामंत्री हुए, संस्था में थे। प्रथम संरक्षक हुए गल्ला बाज़ार के सबसे बड़े व्यापारी लाला दुर्गा प्रसाद जैन।

संस्था के गठन के बाद नयी पीढ़ी के ही नहीं, कानपुर के अधिकांश कवियों का अड्डा मुन्नीलाल के टी स्टाल में लगने लगा। और हमारी पहचान अलग बनने लगी। संस्था में मैं चन्द्रेश का सहायक बना तभी से मैं चन्द्रेश को 'मंत्री' और वह भी आजीवन मुझे 'संत्री' कहते रहे। आज संस्था को सोए हुए तीन दशक से अधिक हो रहे हैं।

चन्द्रेश के देह त्यागने के बाद, दोसर वैश्य इण्टर कालेज में एक शोक सभा का आयोजन हुआ। शोक सभा में उनके कविता संग्रह के प्रकाशन की बात मैंने उठाई तो नगर के ही एक व्यक्ति ने छाती ठोंक कर सभा में कहा था कि वे उसकी व्यवस्था करेंगे पर आज तक कोई परिणाम सामने नहीं आया। जिस व्यक्ति ने कहा था उसका नाम स्मरण करने योग्य नहीं है। ऐसे बेवजह छाती ठोंकने वाले बिना तलाश किए सब जगह पाये जा सकते हैं। चन्द्रेश के गीतों का संग्रह, पूरा कम्पोज़ किया तैयार था। उसके प्रूफ़ मैंने पढ़े थे। कविताओं पर उनसे बहस भी की थी। ख़ैर, यह तो प्रसंगवश याद आ गया। यहाँ यह भी सोचा जा सकता है कि हो सकता है जिसने छाती ठोंकी थी वह कछुए की चाल चलते हुए काम कर रहा हो। और ऐसा ही हुआ अभी 2011 में जून-जुलाई में चन्द्रेश का गीत संग्रह-' सुनो राजा, कहो परजा' प्रकाशित हो गया।

वासन्ती ने बड़े पैमाने पर कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ कराईं। सम्मेलन के लिए होली के अंझों में कलक्टर गंज गल्लामंडी का मैदान खाली करा कर विशाल पाण्डाल लगता था। आलम यह होता कि श्रोता बाहर सड़कों पर खड़े होकर भी सारी-सारी रात कवितायें सुनते। आस-पास के दस-बीस ज़िलों के व्यापारी, वासन्ती का कवि सम्मेलन सुनने के लिए एक रात कानपुर में ठहर जाया करते थे। सन्तोषानन्द, बालकवि वैरागी, सुरेश उपाध्याय, हुल्लड़ मुरादाबादी, आत्म प्रकाश शुक्ल, कुँवर बेचैन, डा. गणेश शंकर बन्धु, शिव ओम अम्बर, दलजीत सिंह रील आदि कवियों को वासन्ती ने ही पहली बार कानपुर में आमंत्रित किया था। यह खोज हम कवियों की हुआ करती थी कि अमुक कवि कानपुर में अभी तक नहीं बुलाया गया है, उसे बुलाया जाता।

संस्था की वर्षगाँठ शरद पूर्णिमा की रात मनाई जाती थी। बावन दूकान में देवा भैया की गद्दी के बाहर मैदान में केवल कनात लगाकर, खुले आसमान के नीचे वृहत् गोष्ठी होती। इसमें भी दो-तीन कवि बाहर से बुलाये जाते। शरद पूर्णिमा की गोष्ठी का एक आकर्षण और होता था-मेवे की स्पेशल खीर। दूध, चावल, शक्कर और मेवे की कमी तो थी नहीं। बहुत बड़े भगोने भर दूध (लगभग एक क्विंटल) औंटा कर खीर बनती। खीर इतनी स्वादिष्ट कि जैसे 'ठग्गू की बदनाम कुल्फी' का स्वाद होता है। हम लोग बेईमानी करके दो-चार सकोरे जब तक उड़ा नहीं लेते, चैन नहीं पड़ता। खीर बाँटने में भी तो संस्था के ही लोग रहते। जब हम दोबारा सकोरा बढ़ाते तो वे चिल्लाकर कहते-'कोई दोबारा नहीं लेगा। बाद में नम्बर लगाएँ।' और सकोरे में खीर भरते जाते। ताकि देवा भैया सुन लें। हालाँकि, देवा भैया हम लोगों की शैतानियाँ जानते थे।

वासन्ती का पंजीकृत कार्यालय मुन्नीलाल टी स्टाल में चलता था। टीन का बड़ा बक्सा लाकर रख दिया गया, उसी में संस्था की स्टेशनरी रहती। नगर के अन्य जो रचनाकार संस्था से जुड़े उनके नाम हैं- श्याम नारायण वर्मा, आनन्द शर्मा, निशंक बाजपेयी, सरस कपूर, उम्मीद कानपुरी, रवीन्द्र श्रीवास्तव आदि। श्याम नारायण वर्मा उपाध्यक्ष मनोनीत हुए पर न जाने क्यों संस्था से पहले आयोजन के बाद ही अलग हो गये थे!

शाम को अँधेरा घिरने के बाद से लोग आना शुरू हो जाते। रात दस साढ़े दस तक बैठक मुन्नीलाल के टी-स्टाल में चलती। उसके बाद शुतरख़ाना तिराहे पर चुंगी-चौकी के सामने 'सेठ जी मैनपुरी वाले' की दूकान पर अड्डा लगता। सेठ जी की दूकान पर अड्डा जमाने का श्रेय बेहिचक रवीन्द्र श्रीवास्तव को दिया जा सकता है। रवीन्द्र 'मित्र मण्डल' में बैठकर प्रकाशक बन ही चुके थे। डा. प्रेम शंकर शुक्ल की कुछ पुस्तकें छापी थीं। स्वयं कविताएँ और कहानियाँ भी लिखा करते थे। इनका विटी होना सभी को बाँधता था।

एक बार रवीन्द्र ने घोषणा कर दी कि वे भी जासूसी उपन्यास लिख रहे हैं। लोगों ने पूछा-'उपन्यास का नाम?' रवीन्द्र ने बताया-'अण्डे का क़त्ल।' रवीन्द्र ने बीस-पच्चीस पन्ने लिखे भी, जो सचमुच रवीन्द्र की प्रतिभा का परिचय देते थे। जो सुनता 'वाह-वाह' कर उठता। लेकिन उपन्यास आगे नहीं बढ़ा। उसे आगे बढ़ना था भी नहीं। बस एक चिकाही थी। चन्द्रेश को तपाना था। रवीन्द्र ने कविताएँ भी लिखीं और उनका एक गीत तब कादम्बिनी में छपा भी था।

वासन्ती से बाहर के अनेक कवि अपना जुड़ाव महसूस करते थे। जिनमें सर्वश्री उमाकान्त मालवीय, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अरुण त्रिवेदी, रामेन्द्र त्रिपाठी, किशन सरोज, भारत भूषण, माहेश्वर तिवारी, प्रेम शर्मा, सुरेश उपाध्याय, विष्णु कुमार त्रिपाठी 'राकेश', आत्म प्रकाश शुक्ल, ब्रजेन्द्र खरे आदि कानपुर आने पर एक-दो रातें वासन्ती के मित्रों के साथ अड्डे पर ज़रूर बिताते। सबसे अधिक कानपुर आना होता था-उमाकान्त मालवीय और शिव बहादुर सिंह भदौरिया का। नगर के अनेक कवि, पत्रकार, नेता वगैरह भी आते रहते थे। हरि नारायण निगम, सुरेन्द्र दुबे, राम किशोर बाजपेयी, जय प्रकाश पाण्डेय, वीर भद्र मिश्र, तन्वीर हैदर उस्मानी, विजय किशोर मानव, सुनील दुबे, नोमानी, नक़वी साहब, कन्हैया लाल सलिल, सुनील राठौर, शिरीष पाण्डेय आदि सेठ जी की दूकान पर अड्डा जमाते थे। वासन्ती का सदस्य हो न हो लेकिन अड्डे पर आने वालों में एक पारिवारिकता होती थी। देवा भैया मुखिया होने के नाते सब पर अपना प्यार बरसाते।

वासन्ती में शर्मा बन्धुओं की अलग पहचान थी। बड़े थे मोहन बाबू और छोटे थे रवीन्द्र शर्मा। लेकिन दाँत गिर जाने के कारण रवीन्द्र शर्मा, जिन्हे वासन्ती का 'टिल्ल-टिल्ल' मंत्री कहा जाता था, बड़े लगते थे। दोनों भाई शक्कर पट्टी व तिलहन बाज़ार के जाने-माने दलाल थे। मोहन बाबू यों दिखने में गम्भीर लगते थे पर बुद्धि के प्रखर और व्यंग्य करने में, चुटकी लेने में बेजोड़ थे। एक बार देवा भाई का किसी से परिचय देते हुए बोले-'आप हैं वासन्ती के अध्यक्ष श्री देवेन्द्र गुप्त और आपकी गेहूँ की आढ़त है। उसकी दलाली भी करते हैं।'

बैठे हुए अन्य लोग चौंके कि देवा भैया की गल्ले की आढ़त तो है फिर मोहन बाबू ने गेहूँ का दलाल क्यों कहा? लेकिन देवा भैया बाज़ार के आदमी थे तत्काल मोहन बाबू की चिकाही समझ गए। भारी भरकम शरीर के देवा भैया घूँसा तान कर'अबे मोहन...!' कहते हुए लपके। मोहन बाबू छरहरे थे, चिटककर दूकान के बाहर निकल गए। तब तक अन्य लोग भी चिकाही समझ गए और ज़ोरदार ठहाका लग गया। रवीन्द्र शर्मा भी हर वक़्त चिकाही के मूड में रहा करते। मुन्नीलाल भी किसी से उन्नीस नहीं थे। इन दोनों की ख़ूब टनाटन चला करती। रवीन्द्र शर्मा बड़े ही रसिक, हँसमुख, फुर्तीले और मस्त थे। नौटंकी से शास्त्रीय संगीत तक बराबर जमते। शर्मा बन्धुओं और रवीन्द्र श्रीवास्तव से वासन्ती के अड्डे की रौनक़ थी।

रात दस बजे के बाद जब हमारा अड्डा शुतरख़ाना तिराहे पर'सेठ जी मैनपुरी वाले' की दूकान पर लगता तो रवीन्द्र श्रीवास्तव घेर-घेर कर लोगों को रोकते। रोज़ ही रात-रात भर घर से बाहर रहना भला कितनों को रास आता। और कितने दिन! इसलिए बारह बजे के बाद धीरे-धीरे लोगों को घर याद आने लगता। अधिकतर लोग एक बजे तक खिसक लेते। रवीन्द्र रोकते रहते। कहते-'क्या ज़िन्दगी है, सुबह का उगता सूरज भी कभी देखा करो।'

एक बार रात के लगभग डेढ़-दो बजे होंगे, रवीन्द्र उठकर हल्के होने गए। मैंने रंजन अधीर से इशारा किया कि मौक़ा अच्छा है निकल चलो। रंजन ने साइकिल उठाई, मुझे आगे बिठाया और हम फूट लिए। रंजन ने मंजूश्री टाकीज़ के आगे तक पूरी ताक़त से साइकिल चलाई। जब उसे लगा कि अब पकड़ के बाहर आ गए तो आराम से चलाने लगा। हम दोनों खुश थे कि आज रवीन्द्र को चकमा दे आए। पर होता वही है जो मन्जूरे-खुदा होता है।

उधर रवीन्द्र गुरू लघुशंका से निवृत्त होकर लौटे तो हम दोनों को नदारद पाया। समझ गए कि पंछी उड़ गए। उन्होंने अपनी साइकिल उठाई, तेज़ी से बावन दूकान होते हुए कोपरगंज तिराहे पहुँच कर खड़े हो गए। जब हम पहुँचे तो उस अँधेरे चौराहे पर रवीन्द्र की आवाज़ उभरी-'अब ऐसे दाँव देकर भागोगे?' और हम लोग खिलखिलाते हुए साइकिल से उतर पड़े। लौट आये फिर अड्डे पर।

कन्हैया लाल सलिल तो रवीन्द्र के इसी घेराव से तंग आकर कहा करते थे-'वह दिन अब दूर नहीं जब रवीन्द्र को देखकर लोग कहा करेंगे-भागो रवीन्द्र आय़ा।'

कन्हैया लाल गुप्त सलिल उन दिनों बड़ी तेज़ी से उभरे थे। अपनी पारी खेल कर मैदान से अलग हो गए। उनका एक गीत-संग्रह स्वर तुम्हारा बाँसुरी मैं - छपा था। लेकिन वासन्ती में आये तो लगा 'नई कविता' का टायफाइड था उन्हें। कविता को लेकर बड़ी बहसें चलतीं। गीत कवियों को आउट आफ डेट सिद्ध करना जैसे उनका शगल था। हाँ अगर मात वे खाते थे तो उमाकान्त मालवीय जी से। सीतापुर से अरुण त्रिवेदी भी सलिल की हाँ में हाँ मिलाने में पीछे नहीं रहते। चन्द्रेश भी उधर ही लुढ़क जाया करते। हाँ, एक क़िस्सा याद आया।

सेठ जी मैनपुरी वाले की दूकान पर अड्डा लगा था। दूकान तो एक गुमटी में थी, जिसमें थाल रखने के बाद एक ही आदमी के बैठने भर की गुंजाइश रहती थी। उस दिन सर्वेश जी भी आए हुए थे। उन्हें सम्मान देने के लिए गुमटी में बिठाया गया। अन्य लोग दूकान से लम्बवत्, फुटपाथ पर पड़ी बेंचों पर जमे थे। गप्पें चल रही थीं। कन्हैया लाल सलिल भी आकर अड्डे में शामिल हो गए। वह अपनी धुन में खोए फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे-

चाँदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया
इक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया

गीत के शब्द सर्वेश जी के कानों में पड़े। वे बोले- 'काहे हो सलिल, तुम तो नई कविता के मनई हौ, यो गीत तो तुमका अइसे गावै का चही-

'प्यार भरा सर फोड़ दिया। दिल से तुम्हार का मतलब?' और ठहाका लग गया।

वासन्ती संस्था से सबसे पहले लोकगीतों का संकलन चलौ मोती उगाउ छपा। सम्पादन में चन्द्रेश का और मेरा नाम दिया गया। मुद्रण में रवीन्द्र श्रीवास्तव के पास अच्छी सूझ-बूझ थी ही। कवि-सम्मेलन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका वही देखते थे। काफी दिनों बाद हम लोगों की देखा-देखी नयागंज के लोगों ने भी 'नटराज' संस्था की स्थापना की थी। जिससे चन्द्रेश गुप्त और कन्हैया लाल सलिल के सम्पादन में कानपुर के युवा कवियों का एक संकलन प्रकाशित हुआ- युवा हस्ताक्षर। भगवान दास कानोडिया के सहयोग से सलिल गुप्त के सम्पादन में सबसे महत्वपूर्ण कविता संकलन 'साठोत्तरी कविता' प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की साहित्यिक आन्दोलनों के बीच अपनी पहचान बनी और इस पर शोध भी हुए। आगे चलकर रवीन्द्र श्रीवास्तव ने जिज्ञासा पत्रिका के एक-दो अंक निकाले। सलिल गुप्त ने स्वतंत्र रूप से उन्मेष पत्रिका निकाली। वासन्ती के अड्डे की कवि सम्मेलन कराने के अतिरिक्त यह कुछ उपलब्धियाँ गिनाई जा सकती हैं।

वासन्ती ने हिन्दी के सेवक सेठ गोविन्द दास का अपने मंच से सम्मान किया था और उन्हें 5100/- रुपयों की थैली भेंट की थी। यह उस ज़माने की बात है जब चाँदी का एक रुपया चार रुपयों से भी कम का मिलता रहा होगा। आज तो चाँदी का एक रुपया छः सौ के आस-पास का है।

देवा भैया के न रहने के बाद संस्था ठप्प सी हो गई। लोग मिलते-बैठते रहे पर वासन्ती सिमट गई। कार्यवाहक अध्यक्ष बने पं. जटा शंकर शास्त्री। नाम चलाने के लिए कुछ वर्षों तक मुन्नू भैया (सेण्ट्रल धर्मशाला के मालिक), जय प्रकाश पाण्डेय आदि के सहयोग से धर्मशाला के हाल में शरद पूर्णिमा वाली गोष्ठियाँ हुईं। फिर धीरे-धीरे वह भी बन्द हो गयीं।

वासन्ती की सफलता देखकर ही नयागंज में (नागेश्वर मन्दिर के पास का बाज़ार) 'नटराज' संस्था की स्थापना हुई थी। इस संस्था ने भी एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन कराया था। इन्हीं दिनों सुरेश सलिल, कमल किशोर श्रमिक, गंगा प्रसाद पाण्डेय, श्याम नारायण पाण्डेय, अम्बिका सिंह वर्मा, उद्भ्रान्त आदि भी वासन्ती के अड्डे पर आते थे। ये लोग कविता में विचार को लेकर स्वस्थ चर्चाएँ करते थे।

- शतदल
 'आवारा वंशी'
से साभार

 



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