जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'एक ने किया था। लेकिन अंततः रिस्क नहीं ले सकी।'
'क्यों?'
'वह मुसलमान थी और मुझे तो हिन्दू कहा जाता है। हिन्दू के साथ शादी! उसे तो हिन्दू नहीं होना पड़ता। फिर मुझे ही अब्दुस शाबिर की तरह नाम परिवर्तन करना पड़ता।'
रत्ना उसकी बात सुनकर हँसी थी। कहा था, 'शादी न करना ही अच्छा है, कुछ ही दिनों की तो जिन्दगी है। बंधनहीन काट देना ही बेहतर है।'
'अच्छा! तो आप भी उस रास्ते पर नहीं जा रही हैं?'
'आपने ठीक समझा!'
'एक तरह से यह अच्छा ही है!'
'मेरा-आपका एक ही सिद्धांत है, इसलिए मेरी आपकी दोस्ती खूब जमेगी!'
'दोस्ती का बहुत बड़ा अर्थ लगाता हूँ मैं। एक-दो विचारों के मिलने से ही दोस्त बना जा सकता है क्या!'
'आपका दोस्त बनने के लिए क्या खूब तपस्या करनी होगी?' सुरंजन ने जोर से हँसते हुए कहा था, 'क्या मेरा इतना सौभाग्य होगा?'
‘आपके अन्दर आत्मविश्वास बहुत कम है न?'
'नहीं, ऐसी बात नहीं! खुद पर विश्वास है, दूसरों पर नहीं।'
‘मुझ पर विश्वास करके तो देखिए!'
उस दिन, दिन भर सुरंजन बेहद प्रसन्न था। आज फिर उसकी रत्ना के वारे में सोचने की इच्छा हो रही है। सम्भवतः मन को ठीक करने के लिए ही। आजकल वह यही करता है। जब भी उसका मन उदास होता है, वह रत्ना को याद करता है। रत्ना कैसी होगी? एक बार वह आजिमपुर जायेगा? जाकर पूछेगा, 'कैसी हैं रत्ना मित्र?' क्या रत्ना थोड़ा-सा हड़बड़ा जायेगी उसे देखकर! सुरंजन तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना चाहिए। साम्प्रदायिक त्रास के कारण एक तरह से हिन्दुओं का पुनर्मिलन हो रहा है, इसे वह महसूस करता है। और अवश्य ही रत्ना उसे देखकर हैरान नहीं होगी। सोचेगी, इस वक्त हिन्दू लोग हिन्दुओं का हालचाल पूछ रहे हैं। विपत्ति में सभी एक-दूसरे का सहारा बन रहे हैं। ऐसी स्थिति में बिना निमंत्रण के सुरंजन. रत्ना के सामने जाकर खड़ा हो सकता है।
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