जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
वह रिक्शा आजिमपुर की तरफ मोड़ने को कहता है। रत्ना का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक है। गोरा रंग, गोल चेहरा, लेकिन आँखों में गहरी मायूसी । सुरंजन को उसकी थाह नहीं मिलती। वह पाकेट से टेलीफोन इंडेक्स निकाल कर उसमें लिखा पता देखकर घर खोजता है। चाहने पर घर नहीं ढूँढ़ पाये, ऐसा कहीं हो सकता है!
रत्ना घर में नहीं है। थोड़ा-सा दरवाजा खोलकर एक प्रौढ़ व्यक्ति ने पूछा, 'आपका नाम क्या है?'
'सुरंजन!'
'वह तो ढाका से बाहर गयी हुई है।'
'कब? कहाँ?' सुरंजन को खुद अपनी आवाज में झलक रही अधीरता और आवेग का आभास होते ही शर्म आयी।
'सिलहट!'
'कब लौटेंगी, कुछ पता है आपको?'
'नहीं!'
क्या रत्ना दफ्तर के काम से सिलहट गई है? या फिर सिलहट गयी ही नहीं है और उससे यूँ ही कहा गया। लेकिन सुरंजन का नाम सुनकर तो छिपने की कोई जरूरत भी नहीं है क्योंकि यह एक 'हिन्दू' नाम है। यही सोचते हुए सुरंजन आजिमपुर के रास्ते पर चलता रहा। यहाँ कोई उसे हिन्दू समझकर नहीं पहचान पा रहा है। टोपीधारी राहगीर, झुंड में खड़े उत्तप्त युवक, रास्ते में चलते युवक; कोई भा उसे पहचान नहीं पा रहा है। यह एक बड़ी मजेदार बात है। वरना यदि वे उसे पहचान लें और यदि उनकी इच्छा हो कि उसके हाथ-पाँव बाँधकर कब्रिस्तान में फेंक आयें तो क्या सुरंजन अकेले उनके हाथों से अपनी रक्षा कर पायेगा! उसकी छाती के अन्दर फिर से धुकधकी होने लगी। चलते-चलते उसने पाया कि पसीना छूट रहा है। वह कोई गरम कपड़े नहीं पहने है। बस पतला-सा एक शर्ट। शर्ट के अन्दर हवा घुस रही है, फिर भी उसके माथे पर पसीना बह रहा है। सुरंजन चलते-चलते पलाशी पहुंच जाता है। जब पलाशी पहुँच ही गया है तो एक बार निर्मलेन्दु गुण का भी हालचाल पूछ लिया जाए। इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी के फोर्थ क्लास कर्मचारियों के लिए पलाशी में कालानी बनी हुई है। उस कालोनी के माली का घर भाड़े पर लेकर निर्मलेन्दु गुण रहते हैं। सत्यभाषी इस व्यक्ति के प्रति सुरंजन की अगाध श्रद्धा है। दरवाजे पर दस्तक देते ही दस-बारह साल की एक लड़की पूरा दरवाजा खोल कर खड़ी हो गई। निर्मलेन्दु गुण बिस्तर पर पैर चढ़ाये ध्यान से टेलीविजन देख रहे थे। सुरंजन को देखते ही सुर में बोले, 'आओ, आओ! आओ, मेरे घर आओ! मेरे घर!'
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