जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सामने आकर वह किरणमयी की दोनों बाँहें पकड़कर सीधा कर देता है। कहता है, 'तुम्हें क्या हो गया है। मूर्ति लेकर क्यों बैठी हो? मूर्ति तुम्हें बचायेगी?'
किरणमयी सुबककर रो पड़ती है। बताती है, 'तुम्हारे पिताजी के हाथ-पाँव सुन्न हो गये हैं। जबान लड़खड़ा रही है।'
तुरंत ही उसकी नजर सुधामय पर पड़ी। वे लेटे हुए हैं। वड़बड़ा रहे हैं लेकिन पता नहीं चल रहा है कि क्या कह रहे हैं। पिताजी के पास बैठकर उसने उनका दाहिना हाथ हिलाया। हाथ में कोई चेतना शक्ति नहीं थी। मानो सुरंजन की छाती पर किसी ने कुल्हाड़ी दे मारी। उसके दादाजी के शरीर का एक हिस्सा इसी तरह सुन्न हो गया था। डॉक्टर ने कहा था, स्ट्रोक है। उनको लेटे-लेटे चने की तरह दवा चबानी पड़ती थी। फिजिओथेरापिस्ट आकर हाथ-पाँव की एक्सरसाइज करा जाता था। गूंगी आँखों से एक बार किरणमयी की तरफ और एक बार सुरंजन की तरफ सुधामय ने देखा।
आस-पास कोई रिश्तेदार भी नहीं है। किसके पास जायेंगे वे लोग? वैसे भी उनका कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं है। एक-एक कर सभी ने देश छोड़ दिया। सुरंजन खुद को बहुत अकेला, असहाय महसूस कर रहा था। लड़का होने के नाते सारा दायित्व उसके कंधे पर ही आ जाता है। परिवार में बेमतलब, बेकार बेटा है वह। आज भी उसका जीवन यूँ ही घूम-घूमकर बीतता है। किसी भी नौकरी में वह टिक नहीं सका।
व्यवसाय भी करना चाहा था, लेकिन नहीं हो पाया। सुधामय के बिस्तर पकड़ लेने से उनका चूल्हा कैसे जलेगा? घर छोड़कर सबको रास्ते में आकर खड़ा होना होगा।
'कमाल वगैरह कोई नहीं आया?' सुरंजन ने पूछा।
'नहीं।' किरणमयी ने सिर हिलाया।
किसी ने खबर नहीं ली, सुरंजन कैसा है! जबकि वह सारे शहर में घूम-घूमकर कितने लोगों की खबर ले आया। सभी अच्छे हैं उसे छोड़कर! शायद इस परिवार के अलावा इतनी दरिद्रता, अनिश्चितता और किसी परिवार में नहीं है। सुधामय के अचेत हाथ को छूकर उसे बहुत दया आई। अपने विपरीत दुनिया में कहीं वे जान-बूझकर तो नहीं जड़ हो गये! कौन जानता है!
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