जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'इससे मुझे क्या?' सुरंजन ने पूछा।
'तुम्हारा क्या मतलब? तुम्हारा कुछ भी नहीं?' हैदर ने हैरान होकर पूछा।
सुरंजन ने शान्त, स्थिर होकर कहा, 'नहीं!'
हैदर इतना आश्चर्यचकित हुआ कि वह खड़ा था, बैठ गया। उसने फिर एक सिगरेट सुलगायी। वोला, 'एक कप चाय पिला सकते हो?'
सुरंजन बिस्तर पर लम्वा होकर लेट गया। फिर कहा, 'घर में चीनी नहीं है!'
बहादुरशाह पार्क से राष्ट्रीय संसद भवन तक 'मानव-बन्धन' के गुजरने का रास्ता है। सुवह ग्यारह बजे से दोपहर एक बजे तक उस रास्ते से होकर कोई सवारी नहीं जायेगी। हैदर मानव बंधन के विषय में और कुछ कहने जा ही रहा था कि सुरंजन ने उसे रोककर पूछा, 'कल की आवामी लीग की मीटिंग में हसीना क्या बोलेगी?'
'शान्ति रैली में?'
'हाँ'
'साम्प्रदायकि सद्भाव बनाये रखने के लिए हर मुहल्ले में धर्म, जाति से परे शांति ब्रिगेड स्थापित करना होगा।
'क्या इससे हिन्दू लोग यानी हमारी रक्षा हो पायेगी? मन-प्राण से जी पाऊँगा?'
हैदर जवाब न देकर सुरंजन को देखता रहा। दाढ़ी नहीं बनाया है, बाल बिखरे हुए हैं। अचानक प्रसंग बदल जाता है। उसने पूछा, 'माया कहाँ है?'
'वह जहन्नुम में गयी है।'
सुरंजन के मुँह से निकला हुआ ‘जहन्नुम' शब्द सुनकर हैदर चौंक गया। वह हँसकर बोला, 'जहन्नुम कैसा? जरा सुनें तो?'
'जहाँ साँप काटता है, बिच्छू डंक मारता है, शरीर में आग लगा दी जाती है, जलकर राख हो जाते हैं फिर भी मरते नहीं।'
'वाह! तुम तो मुझसे ज्यादा जहन्नुम की खबर रखते हो!'
'रखना पड़ता है। आग हमें ही जलाती है न, इसीलिए!'
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