जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'लड़की सयानी हो रही है मुझे रात-रात भर नींद नहीं आती। उस दिन कॉलेज जाते हुए लड़कों ने विजया को घेरा नहीं था?'
'वह तो मुसलमान लड़की को भी घेरते हैं। क्या मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार नहीं होता? उनका अपहरण नहीं होता?'
'होता है। फिर भी...।'
किरणमयी समझाती थी कि सुधामय उसकी बातों का समर्थन नहीं करेंगे। बाप की जमीन नहीं तो क्या हुआ, कदमों के नीचे देश की माटी तो है। यही उनको सांत्वना है। माया की कभी कलकत्ता जाने की इच्छा नहीं रही। वह एक बार कलकत्ता मौसी के घर घूमने गयी थी। अच्छा नहीं लगा। मौसेरी बहनें थोड़े नकचढ़े स्वभाव की हैं। उसे अपनी अड्डेबाजी, बातचीत किसी में भी शामिल नहीं करतीं। सारा दिन अकेले बैठकर वह घर के ही बारे में सोचती रहती थी। दुर्गा पूजा की छुट्टी खत्म होने से पहले ही मौसा जी से देश लौटने की जिद करने लगी।
मौसी ने कहा, 'दीदी ने तो तुम्हें दस दिनों के लिए भेजा है।'
'घर के लिए मन रो रहा है।' कहते हुए माया की आँखों में आँसू आ गये थे। कलकत्ता की पूजा में इतना हो-हल्ला, चहल-पहल रहती है फिर भी माया को अच्छा नहीं लगा। सारा शहर जगमगा रहा था, फिर भी वह बड़ा अकेला महसूस कर रही थी। दस दिनों के बदले वह सात ही दिनों में देश लौट आयी! किरणमयी की इच्छा थी कि माया का अगर मन लग गया तो उसे वहीं रख देगी।
सुधामय के सिरहाने के पास बैठी माया जहाँगीर के बारे में सोचती है। पारुल के घर फोन पर दो बार उससे बातें भी की। जहाँगीर के स्वर में पहले की तरह वह आकुलता नहीं थी। उसके चाचा अमेरिका में रहते हैं। उसको वहीं जाने के लिए लिखा है। वह चले जाने की कोशिश कर रहा है। यह सुनकर माया करीब-करीब आर्तनाद कर उठती है, 'तुम चले जाओगे?'
|