जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'अरे वाह! अमेरिका जैसी जगह में जाने का आफर मिल रहा है और नहीं जाऊँगा?'
'क्या फिर लौटोगे?'
'फिलहाल तो 'ऑड जॉब' करना होगा। फिर एक समय 'सिटिजनशिप' मिल जायेगी।'
'देश नहीं लौटोगे?' 'देश लौटकर क्या करूँगा। इस गंदे देश में आदमी रह सकता है?'
'कब तक जाओगे, कुछ सोचा है?'
'अगले महीने! चाचा जल्दबाजी कर रहे हैं। उनका सोचना है कि मैं यहाँ राजनीति के साथ जुड़कर बर्बाद हो रहा हूँ।'
'ओह!'
जहाँगीर ने एक बार भी नहीं पूछा कि उसके चले जाने पर माया का क्या होगा? माया उसके साथ जायेगी या देश में रहकर उसका इन्तजार करेगी! अमेरिका का स्वप्न! उसके चार वर्ष के प्रेम, रेस्तरां में क्रिसेंटलेक के किनारे टी. एस. सी. में बैठकर शादी की बातें करना सब कुछ ही झटके में भुला दिया? समृद्धि और चमक में इतना मोह होता है कि रक्त-मांस की एक लड़की माया को क्षणभर में भुलाकर जहाँगीर चला जाना चाहता है। सुधामय के सिरहाने के पास बैठकर माया को रह-रहकर जहाँगीर की याद आती है। वह उसे भूलना चाहती है लेकिन नहीं भूल सकती। वह जहाँगीर और सुधामय, दोनों के दुखों को एक ही साथ ढो रही थी। किरणमयी का कष्ट पता नहीं चल रहा था। वह रह-रहकर आधी रात में रो पड़ती थी। क्यों रोती है, किसलिए रोती है कुछ भी नहीं कहती। दिन भर चुपचाप काम करती रहती है। खाना पकाना, पति का मल-मूत्र साफ करना सब चुपचाप करती रहती।
किरणमयी सिन्दूर नहीं लगाती है। न ही सुहाग की लोहा, शंखा की चूड़ियाँ पहनती है। सुधामय ने 1971 में उतार देने के लिए कहा था। 1975 के बाद किरणमयी ने खुद ही खोल दिया था। 1975 के बाद सुधामय ने खुद भी धोती पहनना छोड़ दिया था। सादा ‘लंक्लॉथ' खरीद कर उस दिन तारू खलीफा की दुकान में पाजामा सिलने को दे आये। घर लौटकर किरणमयी से कहा था, देखो तो किरण, मेरा शरीर थोड़ा गरम-गरम लग रहा है न! बुखार-सा लग रहा है।
किरणमयी ने कुछ नहीं कहा था क्योंकि वह जानती थी कि सुधामय का जब भी मन उदास होता है, बुखार-बुखार-सा लगता है।
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