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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :9789352291830

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


माया अपना नाम सुनकर चौंक गयी थी। बाद में रिश्तेदारों के चले जाने पर पारुल बोली, 'तुम्हारा नाम इसलिए झूठ बोलना पड़ा क्योंकि वे लोग थोड़ा दूसरे टाइप के हैं, मुंशी टाइप के। चारों तरफ कहते फिरेंगे कि हम लोग हिन्दुओं को पनाह दे रहे हैं।'

'ओह।'

माया समझ गयी। लेकिन उसके मन को बहुत ठेस लगी। हिन्दू को पनाह देना क्या गलत है? और एक सवाल ने उसकी रातों की नींद छीन ली है-हिन्दू को क्यों पनाह लेनी पड़ती है? माया इण्टर में स्टार लेकर पास हुई और पारुल साधारण द्वितीय श्रेणी में। फिर भी उसे हमेशा महसूस होता है कि पारुल उस पर दया करती है।

'बाबा, उंगलियों को मुट्ठी बाँधने जैसा कीजिए तो। हाथ को जरा उठाने की कोशिश कीजिए!'

अच्छे बच्चे की तरह सुधामय माया की बात मानते हैं। माया को लगता है कि सुधामय की उंगलियों में धीरे-धीरे शक्ति आ रही है।

'भैया क्या खाना नहीं खायेगा?'

'पता नहीं, देखा तो सो रहा है!' किरणमयी ने भावहीन ढंग से कहा।

किरणमयी खुद भी नहीं खाती है। माया का खाना लगा देती है। बंद कमरा है। अन्धेरा-अन्धेरा-सा लग रहा है। माया को नींद भी आ रही है। जुलूस जा रहा है, 'हिन्दू यदि जीना चाहो, इस देश को छोड़कर चले जाओ।' सुधामय ने भी इस नारे को सुना, माया के हाथ में सुधामय का हाथ था, उनका हाथ काँप उठा, उसने अनुभव किया।

सुरंजन का पेट भूख के मारे ऐंठ रहा था। पहले तो वह खाये या न खाये मेज पर उसका खाना ढंका रहता था। आज वह किसी से भूखे होने की बात नहीं कहेगा। पक्के आँगन में नल के पास जाकर आँखों में पानी का छींटा मार आया। फिर तार पर टंगे तौलियों से मुँह पोंछा। कमरे में जाकर शर्ट बदलकर बाहर निकल गया। बाहर निकलकर वह तय नहीं कर पा रहा है कि कहाँ जायेगा? हैदर के घर? लेकिन हैदर तो इस वक्त घर पर नहीं होगा। तो क्या बेलाल या कमाल के घर जायेगा? उनके घर जाने पर यदि वे सोचें कि विपत्ति में पड़कर उनके घर आश्रय या अनुकम्पा के लिए आया है तो? नहीं सुरंजन वहाँ नहीं जायेगा। वह सारे शहर में अकेला घूमता रहेगा। यह शहर तो उसका अपना ही है। कभी वह मयमनसिंह छोड़कर आना नहीं चाहता था, 'आनन्दमोहन' में काफी यार-दोस्त थे। उन्हें छोड़कर अचानक किसी शहर में भला वह क्यों आना चाहता! लेकिन किसी एक गहरी रात में सुधामय जब रईसउद्दीन साहब के पास वह घर बेच आये, उसके दूसरे दिन भी सुरंजन को मालूम नहीं था कि उसको जन्म देने वाला कामिनी फूल की महक से भरा यह घर, स्वच्छन्द तालाब में झिलमिलाती यह 'दत्त बाड़ी' अब और उसकी नहीं रही। सुरंजन ने जब सुना कि सात दिनों के अन्दर उन्हें यह घर खाली कर देना है तो वह रूठकर दो दिन घर ही नहीं आया।

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