जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन समझ नहीं पाया कि उसे इतना अभिमान क्यों है। घर के सभी लोगों पर और बीच-बीच में खुद पर भी उसे बहुत अभिमान होता है। उसे परवीन पर भी अभिमान होता था। वह लड़की उससे प्यार करती थी, छिपकर उसके पास चली आती थी। कहती थी, 'चलो कहीं भाग जाते हैं।'
'भाग जाएंगे, कहाँ?'
'दूर कहीं पहाड़ के पास।'
'पहाड़ कहाँ मिलेगा? पहाड़ पाने के लिए सिलहट नहीं चट्टग्राम जाना होगा।'
'वही जाऊँगी। पहाड़ पर घर बनाकर रहूँगी।'
'खाओगी क्या? फूल-पत्ता?'
परवीन हँसकर सुरंजन के ऊपर लुढ़क जाती। कहती, 'तुम्हारे बगैर मैं मर ही जाऊँगी।
'लड़कियाँ ऐसा ही कहती हैं, लेकिन सचमुच कोई नहीं मरती।'
सुरंजन ने ठीक ही तो कहा था। परवीन नहीं मरी। बल्कि अच्छी लड़की की तरह शादी के मंडप में जा बैठी थी। शादी से दो दिन पहले बोली थी, 'घर में सब कह रहे हैं तुम्हें मुसलमान बनना पड़ेगा।' सुरंजन ने हँसकर कहा था, 'मैं खुद धर्म-कर्म नहीं मानता। यह तो तुम जानती ही हो।'
'नहीं, तुम्हें मुसलमान बनना होगा।'
'मैं मुसलमान बनना नहीं चाहता।'
'इसका मतलब है तुम मुझे नहीं चाहते?'
'बिल्कुल चाहता हूँ। लेकिन इसके लिए मुझे मुसलमान बनना होगा, यह कैसी बात है?'
परवीन का गोरा चेहरा क्षण भर में अपमान से लाल हो गया था। सुरंजन जानता था कि उसे छोड़ देने के लिए परवीन पर उसके परिवार की ओर से दवाव डाला जा रहा है। उसे जानने की बहुत इच्छा होती है कि हैदर उस वक्त किस पक्ष में था। हैदर परवीन का भाई है और सुरंजन का दोस्त भी। वह हमेशा उनके रिश्ते को लेकर चुप रहने की कोशिश करता था। उसका मौन रहना उस समय सुरंजन को बिल्कुल पसन्द नहीं था। उसे कोई एक पक्ष तो लेना ही चाहिए। हैदर के साथ उस समय वह काफी देर तक अड्डेवाजी भी करता था। लेकिन उन दोनों के बीच परवीन को लेकर कोई बात नहीं होती थी। चूंकि हैदर बात नहीं छेड़ता था इसलिए सुरंजन भी कुछ नहीं कहता था।
|