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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2216
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


(3)
अब भी पशु मत बनो,
कहा है वीर जवाहर लाल ने।
पर, यह सुधा-तरंग कौन पीने देता है?
बिना हुए पशु आज कौन जीने देता है?
शुरु हो गया भैंस-भैंस का खेल,
जानवर तू भी बन ले ;
पशु की तरह डकार,
यही वन की भाषा है।
सिर पर तीखे सींग बाँध,
बघनखे पहन ले।
सकुच रहा? क्या बर्बरता का खेल
नहीं खुल कर खेलेगा?
तोड़ेगा सिर नहीं विकट,
विषधर भुजंग का?
भैंसों की हुरपेट
पीठ पर ही झेलेगा?
तो कहता हूँ, सुन रहस्य की बात,
खड्ग सींचा जाता है-
नहीं युद्ध में गंगा के
जल की फुहार से।
अजब बात तू लड़े
आततायी असुरों से
निर्ममता से नहीं,
दया, ममता, दुलार से!

दबा पुण्य का वेग,
अँखड़ियाँ गीली मत होने दे ;
कस कर पकड़ कृपाण,
मुट्ठियाँ ढीली मत होने दे।

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