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कुकुरमुत्ता

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2395
आईएसबीएन :9789386863003

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प्रस्तुत है निराला का सर्वश्रेष्ठ कविता-संग्रह...

KuKurmutta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुकुरमुत्ता विषय-वस्तु, शिल्प-संघटन, भाषिक संरचना व्यंग्य और हास्य इन सभी दृष्टियों से एक सर्वथा विद्रोही आधुनिक और महत्वपूर्ण कृति है। कुकुरमुत्ता हर क्षेत्र में काव्य-आभिजात्य से मुक्ति का एक संदेश देता है।

आवेदन

‘कुकुरमुत्ता’ का संशोधित संस्करण, आशा है, पाठकों को पसन्द आयेगा। इसके व्यंग्य और इसकी भाषा आधुनिक है। जब यह पहले-पहल ‘हंस’ में छपा था, डा. हेमचन्द्र जोशी ने इसकी तारीफ की थी, दूसरे बहकावे से लोगों को बचाने की कोशिश की थी। मैं डॉ. जोशी को धन्यवाद देता हूँ। अर्थ-समस्या में निरर्थकता को समूल नष्ट करना साहित्य और राजनीति का कार्य है। बाहरी लदाव हटाना ही चाहिए, क्योंकि हम जिस माध्यम से बाहर की बातें समझते है वह भ्रामक है, ऐसी हालत में ‘इतो नष्टस्ततो भ्रष्ट:’ होना पड़ता है। किसी से मैत्री हो, इसका अर्थ यह नहीं कि हम बेजड़ और बेजर हैं। अगर हमारा नहीं रहा तो न रहने का कारण है, कार्य इसी पर होना चाहिए। हम हिन्दी-संसार के कृतज्ञ हैं, जिसने अपनी आँख पायी हैं। इस पथ में अप्रचलित शब्द नहीं। बाजार आज भी गवाही देता है कि किताब चाव से खरीदी गई, आवृत्ति हजार कान सुनी गई और तारीफ लाख-मुँह होती रही। हो सका तो ऐसी रचनाएँ लायी जायेंगी। इति।
काशी
8/7/48

 

-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

कुकुरमुत्ता : काव्य-आभिजात्य से मुक्ति
(1)

 

 

‘कुकुरमुत्ता’ की ठीक-ठीक रचना तिथि 3-4-41 दी हुई है। इसका सामान्य अर्थ यही हो सकता है कि उक्त तिथि को ‘निराला’ ने ‘कुकुरमुत्ता’ कविता को अन्तिम रूप दिया होगा। कविता का पूर्वार्द्ध अगले महीने ही ‘हंस’ (हंस, मई, ’41) में छपा। अब तक कुकुरमुत्ता के कुल तीन संस्करण हो चुके हैं। पहला संस्करण ‘युग-मन्दिर, उन्नाव’ से, दूसरा ‘श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय, काशी’ से और तीसरा ‘किताब-महल, इलाहाबाद’ से। ‘युग-मंदिर, उन्नाव’ के संस्करण में भूमिका के नीचे ‘निराला’ के हस्ताक्षर के साथ 4-6-42, प्रकाशन तिथि पड़ी हुई है। उपर्युक्त रचना-तिथि (3-6-41) भी इसी संस्करण में कविता के नीचे दी हुई है। इस तरह लिखे जाने के लगभग एक वर्ष बाद कविता पुस्तकाकार प्रकाशित हुई थी। ‘कुकुरमुत्ता’ के इस पहले-संस्करण में ‘कुकुरमुत्ता’ कविता के अलावा सात दूसरी कविताएँ भी शामिल है- (1) ‘गर्म पकौड़ी, (2) ‘प्रेम-संगीत’, (3) ‘रानी और कानी’, (4) ‘खजोहरा’, (5) ‘मास्को डायलाग्स’, (6) ‘स्फटिक शिला’ और (7) ‘खेल’। इनमें केवल ‘खजोहरा’ को छोड़कर शेष सभी कविताओं के नीचे रचना-तिथि दी हुई है। इससे यह विदित होता है कि ये सारी कविताएँ ’39 से 42 के बीच की लिखी हुई हैं। इस प्रकार ‘कुकुरमुत्ता’ का पहला संस्करण एक ‘कविता-संग्रह’ है, न कि एक लम्बी कविता की पुस्तक। बाद में ‘निराला’ ने उपर्युक्त सातों कविताएँ अपने एक अगले कविता-संग्रह ‘नये पत्ते’ (प्रकाशन वर्ष, 46) में शामिल कर लीं और इसके बाद ‘कुकुरमुत्ता’ कविता का स्वतन्त्र, ‘संशोधित’ दूसरा संस्करण ‘श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय,  काशी से जुलाई, 48 में प्रकाशित हुआ। इस दूसरे संस्करण में भूमिका भी अलग से दी हुई है और पहले संस्करण की भूमिका ( जिसका शीर्षक ‘जियाफत’ दिया गया था) को इसमें शामिल करने की जरूरत ‘निराला’ ने नहीं समझी है। इन दोनों भूमिकाओं के बारे में आगे हम विचार करेंगे। इस दूसरे संस्करण से ‘कुकुरमुत्ता’ एक लम्बी कविता की पुस्तक है, काव्य-संग्रह नहीं। ‘किताब-महल, इलाहाबाद’ से प्रकाशित तीसरा संस्करण (प्रकाशन वर्ष, 52) इसी दूसरे संस्करण की अनुवृत्ति है। ‘कुकुरमुत्ता’ के सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने योग्य है कि इसका प्रकाशन ‘रायल्टी पर’ हुआ था। इस तथ्य की पुष्टि श्री रामकृष्ण त्रिपाठी (निराला जी के पुत्र) को लिखे गए स्वयं ‘निराला’ के ही एक ‘पत्र’ से होती है। ‘रायल्टी पर निकली’ यह वाक्य-खंड ‘निराला’ के सन्दर्भ में इससे इतर एक दूसरे अर्थ को भी ध्वनित करता है, जिससे हम सभी परिचित हैं।
..................
दारागंज, इलाहाबाद: 31-1-45

 

1.

 

 

चिरंजीव रामकृष्ण,
तुम्हारे दोनों पत्र मिले। समाचार मालूम हुए। कल तीस रुपये तुम्हारे खर्च के लिए भेजे। आज पन्द्रह रुपये और भेजते हैं।..चौधरी साहब के ‘युग-मन्दिर’ से हमारी तीन किताबें रायल्टी पर निकलीं, (1) ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, (2) ‘कुकुरमुत्ता’, (3) ‘अणिमा’। पहली दोनों कविताओं के संस्करण समाप्त हो चुके हैं। फिर से छापने के लिए हमने मना किया था। सुना है ‘बकरिहा’ का संस्करण वे कर रहे हैं। क्या बात है, मालूम करके लिखना..।
सस्नेह-

 

-सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला

 

(2)

 

 

विषय-वस्तु, शिल्प, भाषिक संरचना और अभिव्यक्ति की नयी एकान्विति के कारण, ‘कुकुरमुत्ता’ के पहले संस्करण की कविताओं का चयन अद्भुत रूप से महत्त्वपूर्ण है। इन आठों कविताओं का मिजाज बिल्कुल एक-सा है। उनकी ताजगी, उनके शब्द-प्रयोग, उनकी गद्यात्मकता का कवित्व, भाषा का अजीब-सा छिदरा-छिदरा संघटन, अन्दर तक चीरता हुआ व्यंग्य और उत्सुक हास्य-क्षमता तथा कठोरता के कवच में छिपी अगाध (अप्रत्यक्ष) करुणा और उपेक्षित के उन्नयन के प्रति गहरी आस्था ‘निराला’ की रचना-सक्षमता और काव्य-दृष्टि के एक नये (सर्वथा अछूते नहीं) आयाम को हमारे सामने उद्घाटित करती है। सामान्य के संस्पर्श से अभिषित्त, सच्ची कविताओं का इतना लघु किन्तु सर्वांग-संपूर्ण संग्रह उस युग में, और उसके बाद भी, दूसरा नहीं प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कविताएँ जैसे हिन्दी-कविता की भाव-सम्पदा की उस संपूर्ण परंपरा, कल्पना-प्रवणता और तथाकथित अनुभव-समृद्धि के छलावे पर सामूहिक रूप से प्रहार करती हैं, जिससे छायावादी कविता ग्रस्त थी। लेकिन यह प्रहार निराला की अपनी ही या अपने दूसरे समकालीन कवियों की स्थापित और मान्यता-प्राप्त, लोकप्रिय काव्य-वृत्ति को तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि अपनी नयी शक्तिमत्ता और सार्थकता को उतनी ही महत्ता और मूल्यवत्ता से स्वीकृत कराने के एक आस्थाशील हठ के रूप में है। जैसा कि हम शुरू में ही देख चुके हैं, इन कविताओं का रचना काल ’39 से 42 के वे वर्ष हैं, जिसमें हिन्दी-कविता और अन्य विधाओं में भी प्रगतिशील आन्दोलन का बोलबाला था। इस भ्रम से वह दूसरा भ्रम में भी कई बार खड़ा किया गया है कि ‘निराला’ की ‘कुकुरमुत्ता’ की कविताएँ प्रगतिशील आन्दोलन की उपज है। ‘कुकुरमुत्ता’ की इससे बड़ी भ्रामक व्याख्या और कोई नहीं हो सकती। आज जब कि ‘निराला’ को स्वर्गवासी हुए सात वर्ष हो चुके हैं और उनका सारा साहित्य (उनकी अप्रकाशित कविताओं का अंतिम संकलन ‘सांध्य-काकली’ भी अब प्रकाशित हो चुका है।) हमारे सामने है, हमें उनके संपूर्ण रचना-अनुभव को एक बार फिर से टटोल कर उसका पुनर्मूल्यांकन करना होगा।

संसार के दूसरे महाकवियों की तरह ‘निराला’ में रचना-प्रक्रिया और संवेदना के कई-कई स्तर एक ही समय में कार्यरत दिखाई देते हैं। उनका अनुभव, उनकी संवेद्य आकुलता और उनकी भाषिक और शिल्पगत संरचना-सब, इतने गहन और विराट हैं कि वे अक्सर और सहज रूप में कार्यशील दिखायी देते हैं। उनके पहले काव्य-संग्रह ‘अनामिका’ से लेकर अन्तिम संकलन ‘सांध्य काकली’ तक में अनुभव, शिल्प, अभिव्यक्ति और भाषागत संरचना के ये विविध रूप और स्तर ढूँढ़ने पर आसानी से मिल जाते हैं। अत: ‘निराला’ की कविताओं का अध्ययन, काल-क्रम में उतना उपयोगी और स्तरीय तथा उचित नहीं लगता, जितना इन रचना-स्तरों की ऐतिहासिक खोज और अनुभव और भाषा के विभिन्न आयामों के विकास और उनकी संरचना की विशेषताओं के अध्ययन में। संभव है, मेरी इस धारणा में विद्वान आलोचकों और पूर्वग्रहियों को कोई त्रुटि दिखे, लेकिन ‘निराला’ के विराट क्रियाशील काव्य-व्यक्तित्व के सही अध्ययन का दूसरा कोई भी तरीका, निश्चित रूप से भ्रामक सिद्ध होगा। उदाहरण के लिए ‘कुकुरमुत्ता’ के सन्दर्भ में ही अगर हम ‘निराला’ के विराट काव्य-व्यक्तित्व की छानबीन करें तो उपेक्षित के उन्नयन, उसके प्रति गहरी करुणा और सामान्य की प्रतिष्ठा को अभिव्यक्ति देने वाली कविताएँ ‘निराला’ के सभी संग्रहों में समान रूप से मिल जायेंगी। ‘अनामिका’ की ‘तोड़ती पत्थर’ और ‘वे किसान’ की ‘नयी बहू की आँखें’, ‘परिमल’ की ‘विधवा’, ‘भिक्षुक’, ‘दीन’ से लेकर ‘कुकुरमुत्ता’ के प्रकाशित ‘नये पत्ते’, ‘बेला’ की अधिकांश कविताएँ और ‘अर्चना’, ‘अणिमा’, ‘आराधना’ के कुछ लोक-धुनों से सम्पन्न नये गीत, इस रचना-स्तर में हमें मिल जाते हैं। किन्तु उपेक्षित के प्रति इस गहरी करुणा, उसके उन्नयन या उसकी प्रतिष्ठा की अभिव्यक्ति और दृष्टिकोण में कालक्रम का अध्ययन नियोजित किया जा सकता है। इस दृष्टि से पहले की कविताओं (‘विधवा’, ‘तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक’, ‘दीन’ अथवा ‘बादल राग’) से ‘कुकुरमुत्ता’ की कविताओं के सम्पूर्ण टोन में एक सुखद विकास और परिवर्तन लक्षित होता है। ‘विधवा’ या ‘भिक्षुक’ या ‘तोड़ती पत्थर’ विषय-वस्तु की दृष्टि से एक ही कोटि में आने के बावजूद अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति और भाषिक संरचना में छायावादी कविताएँ ही हैं। उनका मिजाज नया था उस तरह अलग नहीं है जिस तरह कि ‘कुकुरमुत्ता’ का अथवा ‘नये पत्ते’ संग्रह का। ‘विधवा’, ‘भिक्षुक’ अथवा ‘तोड़ती पत्थर’ की करुणा भी वह उफनती हुई करुणा है, जो छायावादी कविता की अपनी विशेषता है। इन कविताओं को जैसे ‘निराला’ अपनी छाती से चिपकाये हुए हैं। अपनी करुणा से सतत रूप से आर्द्र, अभिभूत और आप्लावित किये हुए हैं। एक विराट अश्वत्थ की तरह ‘निराला’ का संपूर्ण व्यक्तित्व इन पर छाया हुआ है। साथ ही विषय-वस्तु के रूप में ‘उपेक्षित’ होते हुए भी ‘विधवा’, ‘तोड़ती पत्थर’, ‘दीन’ या ‘भिक्षुक’ के पात्रों के सहने में एक विचित्र प्रकार की उच्चाशयता के दर्शन होते हैं। यह सहने की उच्चाशयता भी छायावाद के उसी काव्य-आभिजात्य की देन है या उसी आदर्श से अनुप्राणित है।

 

(1)

 

‘सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न...
...और जगत की ओर ताक कर
दुख, हृदय का क्षोभ त्याग कर
सह जाते हो...

 

-‘दीन

 

(2)

 

‘देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।
सजा सहज सितार..

 

-तोड़ती पत्थर

 

(3)

 

ठहरो अहो, मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दु:ख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

 

-‘भिक्षुक

 

यह सहने की विवश उच्चाशयता या उफनती करुणा का अपार प्रसार सारी विषयगत नवीनता के बावजूद इन कविताओं में हर जगह मिलता है। ये कविताएँ करुणाभिभूत अधिक करती हैं। कुछ इस सीमा तक कि उनका नग्न यथार्थ (जो सम्भवत: कवि का अभिप्रेत है।) इस करुणा में ऊभ-चूभ होता हुआ दिखता है। नग्न यथार्थ की यही ठोस और व्यंग्यपूर्ण परिणति आगे चलकर ‘कुकुरमुत्ता’ में परिलक्षित होती है। वहां उपेक्षित अथवा सामान्य द्वारा न तो सहने की उच्चाशयता के दर्शन होते हैं, न ही ‘निराला’ उन्हें छाती से चिपकाये हुए-से नजर आते हैं। ‘रानी और कानी’, ‘गर्म पकौड़ी’, ‘प्रेत संगीत’, ‘खजोहरा’, ‘स्फटिक शिला’ अथवा ‘कुकुरमुत्ता’ आदि सारी कविताएँ कवि के किंचित् पृथक् अपना एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व धारण किए हुए सामान्य ही दिखने की चेष्टा में रत है। यहाँ एक ठण्डा और काटता हुआ व्यंग्य है-‘कानी’ में जिसका नाम ‘रानी’ है और जो बेहद कुरूप है, या ‘कुकुरमुत्ता’ की डींग में और अन्तत: गुलाब की जगह उसकी उपयोगितावादिता में या ‘प्रेम-संगीत’ के ठेठ देहातीपन और नंगे कथन में या ‘खेल’ के ‘अकड़े हुए लड़के’ में।

यही वस्तु-स्थिति भाषिक संरचना और अभिव्यक्ति को लेकर भी देखी जा सकती है। मुक्त छन्द के बावजूद ‘तोड़ती पत्थर’ या दूसरी कविताओं का संपूर्ण संग्रथन छायावादी है। शब्द-प्रयोग से लेकर उनकी ध्वनि, लयात्मकता और कथन-भंगिमा-सभी कुछ में छायावादी संस्कार उभरकर सामने आ जाता है। (भिक्षुक कविता को इसका अपवाद कहा जा सकता है।) शब्द-बन्ध में जगह-जगह यहाँ एक विचित्र प्रकार का घाल-मेल मिलता है। जहाँ कहीं भी विषय के अनुकूल शब्द-बन्ध को ढालने की चेष्टा की गयी है, वहीं तुरंत संस्कारहीन शब्द-गरिमा फिर पंक्तियों के बीच से तोड़कर आ जाती है। जैसे कोई न छायादार, पेड़’..के बाद ‘श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन-’ यह पूरा बन्ध छायावादी शब्द-संयोजन की देन है। इससे पत्थर तोड़ने वाली के एक अभिजात-से लगने वाले सौन्दर्य की सृष्टि होती है- उसका काला-कलूटा रंग और पत्थर तोड़ती हुई मुद्रा अधिक प्रकट नहीं होती। इसी तरह ‘हथौड़े’ के साथ ‘गुरू’ शब्द का ‘भारी’ की जगह प्रयोग या ‘तरुमालिका अट्टालिका, प्राकार’ अथवा ‘लीन होते कर्म में-’ यह सारा-का-सारा शब्द-संग्रथन छायावादी है। भाषिक संरचना का यह रूप कविता को पुराने अर्थों में कविता का रूप देने की ओर अधिक उन्मुख है, उसे सामान्य बनाने की ओर कम। ‘विधवा’ या ‘दीन’ कविताएँ भी भाषिक संरचना और अभिव्यक्ति की भाव-भंगिमा की इसी विशेषीकरण की प्रवृत्ति को इंगित करती हैं। इसकी जगह या इसकी तुलना में, अभिव्यक्ति की नयी भंगिमा, सर्वथा नयी भाषा-संरचना, काव्य-आभिजात्य से पृथक् सामान्य को सामान्य रूप में रहने देकर उसके अन्दर से नग्न और भयावह यथार्थ को उजागर करने तथा तराशने वाले व्यंग्य के उदाहरण रूप में ‘कुकुरमुत्ता’ के पहले संस्करण की एक ही कविता ‘रानी और कानी’ को उद्धृत करना काफी होगा।

 

‘‘माँ उसको कहती है रानी
आदर से, जैसा है नाम,
लेकिन उसका उल्टा रूप
चेचक के दाग, काली, नक-चिप्टी
गंजा सर, एक आँख कानी।
-रानी अब हो गयी सयानी।
बीनती है, काँड़ती है, कूटती है, पीसती है
डलियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है
घर बुहारती है, करवट फेंकती है,
और घड़ों भरती है पानी।..
..............
...................
सुनकर कानी का दिल हिल गया....
दायीं आँख से आँसू भी बह चले माँ के दुख से
लेकिन वह बायीं आँख कानी
ज्यों-की-त्यों रह गयी रखती निगरानी।

 

-रानी और कानी।

 

मैंने पूरी कविता नहीं उद्धृत की है। ऊपर वाले दो खण्डों में भाषिक संरचना का अद्भुत और सर्वथा नया रूप दृष्टिगत होता है। बल्कि पुराने काव्य-शास्त्र या आलोचना-मानों के अनुसार कविता में प्रयुक्त अधिकांश शब्द ‘वर्जित’, ‘भदेस’, ‘काव्य-गुण-विपन्न’, ‘देशज’ और न जाने क्या-क्या कहलायेंगे। लेकिन यहाँ पूरी कविता में जैसे उन्हीं के प्रयोग का आग्रह एक चुनौती के रूप में झलकता है। बल्कि शब्द यहाँ अभिव्यक्त न करके अभिप्रेत मन्तव्य का साकार चित्र खड़ा कर देते हैं। उनकी क्षमता यहाँ दर्शनीय है। ‘नक-चिप्टी’ ‘काँड़ती है’, ‘बीनती है’, ‘कूटती है‘, ‘पीसती है’, से लेकर ‘गंजा सर’ और ‘एक आँख कानी’ के साथ माँ के द्वारा ‘रानी’ सम्बोधन एक तीखे व्यंग्य और कठोर करुणा की सृष्टि करता है। ‘काली, नक-चिप्टी’ के साथ ‘और घड़ों भरती हैं पानी’ वाली श्रमशीलता और ‘श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय कर्म रत मन’ की श्रमशीलता की अभिव्यक्ति में कितना बड़ा गुणात्मक अन्तर है, यह आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है। एक नग्न यथार्थ की कटु अभिव्यक्ति है, तो दूसरी (तोड़ती पत्थर) यथार्थ को काव्य-आभिजात्य देने का प्रयास। इसके अलावा ‘तोड़ती पत्थर’ में व्यंग्य न होकर जहाँ एक मूक विवशता (‘मैं तोड़ती पत्थर’) और वही-सहने की उच्चाशयता है, वहाँ पर ‘रानी और कानी’ में अपना ब्याह न हो सकने की बात सुनकर ‘दायीं आँख’ से माँ के दुख से रोने और बायीं आँख (कानी) से इस करुणा पर जैसे निगरानी रखते हुए चुप रहने में व्यंग्य का भयानक, तीखी और नंगी और कटु मार अभिव्यक्त हुई है। अपना ब्याह न होने की विवशता का दुख कानी को उतना नहीं है, जितना इस चिन्ता से माँ के दुखी और परेशान होने का। कानी अपने लिए नहीं रोती, बल्कि माँ के लिए अपनी साबुत आँख से रोती है और कानी आँख से चुप रहती है। इतनी अनुपम, भिन्नार्थक, डाइनॉमिक और साथ ही इतनी छोटी कविता, इतनी अर्थगर्भित मुझे हिन्दी के समग्र आधुनिक काव्य में दूसरी नहीं मिली। इस तरह की अर्थगर्भिता और अभिव्यक्ति का डाइनॉमिज्म तथा नयी भाषिक संरचना के उदाहरण स्वरुप ‘कुकुरमुत्ता’ के पहले संस्करण की सारी कविताएँ उद्धृत की जा सकती हैं। इस तरह ‘निराला’ के काव्य-व्यक्तित्व के जिस रचना-स्तर का आरम्भ ‘विधवा’, ‘दीन’, ‘तोड़ती पत्थर’ या ‘भिक्षुक’ में हुआ, उसका चरम विकास ‘कुकुरमुत्ता’ में मिलता है। ‘नये पत्ते’ एक तरह से अनुभव के इस नये आयाम को और अधिक प्रतिष्ठित करने के लिए प्रकाशित किया गया है। बाद की कविताओं में ‘निराला’ का यह स्वर फिर कुछ-कुछ क्षीण सा हो गया है और उन पर उनका गीतकार और प्रार्थनापरक रूप तथा दैन्य, करुणा और व्यथा और अन्त की अगाध विवशता हावी हो गयी है। इस तरह ‘कुकुरमुत्ता’ का यह प्रथम संस्करण भाव, अभिव्यक्ति, भाषा, व्यंग्य और कटु यथार्थ के गहरे चित्रण के कारण निश्चय ही हिन्दी में एक नये काव्य-मान, एक नयी शैली और एक सर्वथा मौलिक काव्य-सम्पन्नता के स्वीकार की शुरूआत करता है।

 

(3)

 

‘कुकुरमुत्ता’ का दूसरा संस्करण, जैसा कि हम शुरू में ही सूचित कर चुके हैं, सिर्फ एक लम्बी कविता-पुस्तक है, न कि काव्य-संग्रह। सम्भवत: सन् 42 से 48 तक आते-आते ‘कुकुरमुत्ता’ की अर्थवत्ता को उतनी स्वीकृति मिल चुकी थी, जितनी कि उसके स्वतन्त्र रूप में पुस्तकाकार प्रकाशन के लिए आवश्यक थी। दूसरी ओर इसी भाव-भूमि पर लिखी गयी ‘नये पत्ते’ की कविताओं को और समग्र, सार्थक और महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए ‘निराला’ ने प्रथम संग्रह की शेष सातों कविताएँ इसमें जोड़ दीं। ‘कुकुरमुत्ता’ कविता की महत्ता की स्वीकृति का यह संकेत दोनों संस्करणों की भूमिकाओं के ‘टोन’ से साफ झलक आता है। पहले संस्करण  में ‘निराला’ लिखते है-‘इसमें वह शरीक होंगे जिन्हें न्योता नहीं भेजा गया।’ इससे दिया गया संकेत साफ प्रकट है। अर्थात् वे सामान्य जन, जो इतने नाम-रूप हीन और ‘अविशेष’ और ‘समूह’ हैं कि उन्हें आमन्त्रित नहीं किया जा सकता। भूमिका में आगे चलकर ‘निराला’ की अकड़ और अहं देखने लायक है। लेकिन उस संक्षिप्त-सी भूमिका के अन्दर यह बात साफ झलकती है कि ‘विशेष से सम्भवत: इस नयी काव्य-सम्पदा और भाषिक संरचना की स्वीकृति नहीं मिलेगी और वे निमंत्रित होकर भी इसकी उपेक्षा ही करेंगे। इन ‘विशेष’ लोगों के काव्य-संस्कार को एक ठोकर लगाने और उनकी परवाह न करने की मुद्रा में और संभवत: उन्हें थोड़ा और चिढ़ाने की गरज से ‘निराला’ ने अपनी इस संक्षिप्त-सी भूमिका का शीर्षक तक ‘जियाफत’ दिया है। ...लेकिन दूसरे संस्करण में यह हठ एक आत्मविश्वास में परिणत हो गया है। पहले संस्करण की भूमिका भी इसमें शामिल नहीं की गयी है। असहमत होने वालों को ‘गलत राह पर’ जाने वाला बताया गया है। साथ ही जनमत की प्रशंसा का भी उल्लेख है और इसका आश्वासन भी कि इस तरह की और रचनाएँ भविष्य में ‘सामने लायी’ जायेंगी। दूसरी ओर अति की सीमा तक जाकर उर्दू-फारसी शब्दों के प्रयोग-बाहुल्य पर एक रोक भी।
चूँकि इस दूसरे संस्करण की भूमिका में ‘कुकुरमुत्ता’ को ‘संशोधित संस्करण’ कहा गया है, इसलिए उत्सुकतावश मैंने प्रथम संस्करण से इसे मिलाकर देखना शुरू किया। कविता के इस दूसरे संस्करण में ‘निराला’ ने लगभग निन्यानवे परिवर्तन किये हैं। ये परिवर्तन अपने-आप में अत्यंत रोचक अध्ययन का विषय है-खासकर एक दूसरे परवर्ती कवि के लिए..।

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