नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
कात्या : तुम क्या जानबूझकर बादशाह सलामत की सवारी के आगे कूद नहीं गए थे? इसलिए कि तुम उनकी गाड़ी के नीचे कुचले जाओ।
[हानूश चुप रहता है।]
कात्या : बोलो, चुप क्यों हो गए?
हानूश : नहीं तो, कात्या, ऐसी कोई बात नहीं है। यों ही तरह-तरह के कयास लगाती रहती हो। बड़ी अजीब बात है, कात्या। अब मुझे कभी-कभी बिलकुल भूल जाता है कि मैं अन्धा हूँ। अब इस वक़्त मैं घर में बैठा हूँ, मुझे लगता है, मैं सबकुछ देख रहा हूँ-कौन-सी चीज़ कहाँ पर है। अन्धों की दुनिया इतनी अँधियारी नहीं होती, कात्या। हम नाहक उनके बारे में परेशान होते रहते हैं।...तुम फिर चुप हो गई हो, क्या फिर मैं कोई भूल कर बैठा हूँ?
कात्या : तुम आराम से चुपचाप बैठो। यान्का, बापू के लिए थोड़ा दूध ले आओ।
हानूश : कात्या, कभी-कभी ऐसा ज़रूर होता है, मुझ पर जनून-सा चढ़ जाता है। हर बार जब घड़ी बजती है तो मुझे लगता है, मेरे अन्धेपन का मज़ाक उड़ा रही है। जब बजती है तो लगता है, सभी लोग हँसने लगे हैं-बादशाह अपने महल में, लाट पादरी अपने गिरजे में हँस रहा है। सभी हँस रहे हैं; और मुझ पर एक अजीब पागलपन-सा छाने लगता है। (थोड़ा रुककर) पर कभी-कभी, तुमसे क्या कहूँ, मुझे ऐसा लगता है, जैसे मेरी आँखें लौट आई हैं, जैसे चारों ओर रोशनी छिटकी हुई है और मैं सबकुछ देख पा रहा हूँ, और मुझे लगता है, जैसे मेरे हाथ फिर से घड़ी बनाने में लगे हुए हैं, और वह ऐसी घड़ी, जो हर बार बजने पर मानो कह रही है कि हानूश न तो अन्धा हुआ है, न मरा है...
कात्या : तुम सचमुच एक दिन घड़ी बनाओगे हानूश, तुम्हारी आँखें सचमुच लौट आएँगी।
हानूश : मैं भी कैसा पागल हूँ! अन्धे लोग आँखोंवालों से भी ज़्यादा बचकाना सपने देखते हैं। क्या मैं नहीं जानता कि न मेरी आँखें लौट सकती हैं और न मैं घड़ी बना सकता हूँ?
कात्या : तुम अन्दर चलकर आराम करो।
हानूश : मुझे हुआ क्या है कात्या, मैं तो बिलकुल ठीक-ठाक हूँ।
कात्या : नहीं-नहीं, चलो अन्दर। (यान्का से) तुम थोड़ी देर के लिए आकर अपने बापू के पास बैठो। आओ, यान्का।
[कात्या हानूश को सहारा देकर पिछले कमरे में ले जाती है। पीछे-पीछे यान्का भी अन्दर चली जाती है।]
ऐमिल : (जेकब से) यहूदी सराय तो देखी है, जहाँ यहूदी सौदागर आकर रहते हैं?
जेकब : हाँ, वह पास ही तो है।
ऐमिल : वहाँ फ़ौरन चले जाओ। वहाँ जोर्जी नाम का तुला का एक सौदागर ठहरा हुआ है। मोटा-सा सौदागर है। तुम पहचान लोगे।
जेकब : अच्छी बात है।
[मगर ठिठक जाता है।]
ऐमिल : सुनो जेकब, मुमकिन है, तुम्हें यह शहर छोड़कर जल्दी ही यहाँ से चले जाना पड़े।
जेकब : क्यों, क्या बात है? क्या कोई नई बात हुई है?
ऐमिल : तुला का सौदागर तुम्हें सब बता देगा।
[जेकब चला जाता है।]
कात्या : (अन्दर दाखिल होते हुए) हम जल्दी ही यहाँ से चल देंगे ऐमिल। तुम्हें उस सौदागर ने क्या कहा था? जेकब कहाँ है?
ऐमिल : मैंने जेकब को उस सौदागर के पास भेजा है। (आगे बढ़कर) तुमने सुना कात्या, हानूश क्या कह रहा था? उसके अन्दर घड़ी बनाने की ख्वाहिश अभी तक मौजूद है।
कात्या : नहीं ऐमिल, मुझे लगता है, जैसे हानूश बहक गया है। बहकी-बहकी बातें करने लगा है। मुझे तो सचमुच डर लगने लगा है।
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