नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
ऐमिल : अन्दर की बौखलाहट उसे चैन नहीं लेने देती। पर जैसे भी हो, उसकी यह बेचैनी दूर करनी होगी।
कात्या : तुम समझते हो, वह मान जाएगा? यहाँ से चले जाने के लिए रज़ामन्द हो जाएगा? (उत्तेजित हो उठती है) यह बहुत बड़ी तब्दीली है, ऐमिल, बुढ़ापे में घर से बेघर होनेवाली बात है। अपना देश छोड़कर परदेस में कभी कोई सुखी नहीं हुआ और एक बार यहाँ से गए तो लौटना नामुमकिन होगा। और जो महाराज को पता चल गया तो बावले कुत्तों से हमें नुचवा देंगे। मेरा दिल धक्-धक् कर रहा है।
ऐमिल : यहाँ से बुरा नहीं होगा, कात्या, इत्मीनान रखो। कोई क़दम तो उठाना ही पड़ेगा। हानूश को इस हालत में नहीं छोड़ा जा सकता। तुम देख तो रही हो।
कात्या : (धीरे से सिर हिलाती है) मैं क्या जानूँ...शायद तुम ठीक कहते हो, ऐमिल!
[पिछले कमरे से हानूश का प्रवेश। दहलीज़ पर खड़ा है।]
हानूश : सुनो ऐमिल, कात्या, तुम लोग कहाँ हो?
ऐमिल : क्या है, हानूश? तुम सोए नहीं?
हानूश : तुम लोगों ने घड़ी को बजते सुना है?
[कात्या और ऐमिल एक-दूसरे की ओर देखते हैं।]
इस वक़्त तक उसे बजना चाहिए था, पर वह बजी नहीं। तुमने उसकी आवाज़ सुनी है?
ऐमिल : क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हो, हानूश! तुम्हें आराम करना चाहिए! कुछ देर के लिए जाकर सो जाओ।
हानूश : उसे अब तक बजना चाहिए था। बहुत-सा वक़्त ऊपर हो गया है। घड़ी नहीं बजी। तुमने उसकी आवाज़ सुनी, कात्या?
कात्या : नहीं तो। मैंने ध्यान नहीं दिया, हानूश! ज़रूर अपने वक़्त पर बजी होगी।
हानूश : जेकब, तुमने घड़ी को बजते हुए सुना?...जेकब?
कात्या : जेकब यहाँ पर नहीं है हानूश, वह बाहर गया है।
हानूश : यान्का, तुमने सुनी?
यान्का : नहीं बापू, मैंने भी उसकी आवाज़ नहीं सुनी। मैं तो तुम्हारे साथ अन्दर बैठी थी।
हानूश : घड़ी नहीं बजी है, उसे बजना चाहिए था। जब पिछली बार बजी थी तो तुमने सुना था, कात्या? क्यों ऐमिल, क्या तुमने आवाज़ सुनी थी?
कात्या : हानूश को एक-एक पल का अन्दाज़ रहता है, सारा वक़्त उसके कान घड़ी की ओर लगे रहते हैं। शायद वह सचमुच नहीं बजी है।
हानूश : घड़ी बन्द हो गई है। सुनती हो कात्या, लगता है, घड़ी बन्द हो गई है।
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