नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
अधिकारी-1 : इसकी देख-रेख के तो आप ही ज़िम्मेदार हैं। सरकार आपको इसके लिए वज़ीफ़ा देती है।
हानूश : जी, दुरुस्त है, मुझे वज़ीफ़ा मिलता है। मगर अन्धी आँखों से मैं उसकी क्या देखभाल कर सकता हूँ?
अधिकारी-2 : ये सब बातें आप बड़े वज़ीर से कहिए। आप हमारे साथ चलिए।
अधिकारी-1 : बादशाह सलामत चाहते हैं कि आप घड़ी को जल्दी-से-जल्दी ठीक कर दें। उसका नुक़्स दूर हो गया तो बादशाह सलामत की नाराजगी भी दूर हो जाएगी।
हानूश : (मुस्कुराकर) मैं नहीं समझता था कि इन दो आँखों की महाराज को फिर भी कभी ज़रूरत पड़ सकती है। अब अन्धा आदमी घड़ी कैसे ठीक कर सकता है?
अधिकारी-2 : आपको चलना होगा।
हानूश : मेरा सबसे बड़ा औज़ार मेरी आँखें हैं। उनके बिना मैं घड़ी को कैसे ठीक कर सकता हूँ?
अधिकारी-1 : अगर आपका यही जवाब है तो मैं उनसे यही कह दूंगा कि आप आने से इनकार करते हैं।
कात्या : नहीं हानूश, तुम इनके साथ जाओ। बड़े वज़ीर को समझाओगे तो वह समझ जाएँगे।
अधिकारी-2 : यह मत भूलिए कि महाराज बहुत नाराज़ हैं।
हानूश : (मुस्कुराकर) मेरी ही घड़ी के पास मुझे घसीटकर ले जाओगे?
अधिकारी-2 : अब वह घड़ी आपकी नहीं है। अब वह रियासत की घड़ी है।
हानूश : मैं भी कितना पागल हूँ! अपनी हैसियत को न आज तक समझा, न पहचाना। ऐमिल, तुम ठीक कहते थे कि बादशाह सलामत ने तुम्हें अन्धा बनाया है, पर इससे एक दिन तुम्हारी आँखें खुल जाएँगी। तुम्हें स्याह और सफ़ेद की पहचान आ जाएगी। (रुक जाता है फिर धीमी आवाज़ में) चलिए साहिब, मैं आपके साथ चलूँगा। मैं आपके पीछे-पीछे, एक वफ़ादार कुत्ते की तरह, आपके क़दमों में लोटता हुआ चलूँगा।...क्योंकि मैंने एक दिन घड़ी बनाई थी।
अधिकारी-1 : आपका शागिर्द कहाँ है? वही, जो घड़ी की देखभाल में आपकी मदद करता है?
हानूश : उसकी ज़रूरत नहीं होगी, मैं ख़ुद ही घड़ी को ठीक कर लूँगा।
कात्या : (डरकर) हानूश!
हानूश : क्या है, कात्या? घबराओ नहीं...चलिए साहिब...बादशाह सलामत अपने दिल की मुराद पूरी करें, मैं अपने दिल की। चलिए, मैं तैयार हूँ।
कात्या : (ऐमिल से) हानूश मौत के मुँह में जा रहा है, मुझे डर लगता है। मैं क्या करूँ? ऐमिल, मुझे लगता है कि वह कोई ख़ौफ़नाक हरकत करने जा रहा है।
ऐमिल : अन्धा आदमी क्या करेगा, कात्या ?
कात्या : वह घड़ी को तोड़ने जा रहा है। मैं जानती हूँ। वह समझता है, इसे तोड़कर सरकार से बदला लेगा।
ऐमिल : नहीं कात्या, उससे कुछ भी बन नहीं पाएगा। वह अपने-आप दो क़दम तक तो चल नहीं सकता। मीनार में वह क्या करेगा? अधिकारी सारा वक़्त उसके सिर पर खड़े होंगे।
कात्या : ऐमिल, तुम जेकब को उसके पास भेजो! जैसे भी हो, जेकब को उसके पास भेजो!
ऐमिल : जेकब तो शहर छोड़ चुका होगा, कात्या। अब तक तो वह पुल पार कर चुका होगा। जाने कहाँ पहुँच चुका होगा! उसे मैं कहाँ ढूँढूँ?
कात्या : कैसी रात आई है!...और उसकी हर रात ही इतनी भयानक हुआ करती है।
[पर्दा गिरता है।]
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