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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


उपर्युक्त आधार पर गणना करके भारतीय खगोलशास्त्रियों ने यह उद्घाटित किया कि ब्रह्मांड को अस्तित्व में आए अब तक कुल पचास ब्रह्मवर्ष व्यतीत हो चुके है और ब्रह्मा (ब्रह्मांड की कारक शक्ति) की संपूर्ण आयु का दूसरे परार्ध (यानी भाग) का पहला दिन (वाराह नामक कल्प) इस समय चल रहा है। इस कल्प के भी छह मन्वंतर अब तक बीत चुके हैं और सातवें मन्वंतर (यानी स्वरोचिसश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा चाक्षुषश्च महातेजो विवस्वत्सुत एव च अर्थात् स्वयंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष व वर्तमान का यह वैवस्वत मन्वंतर) की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के आखिरी युग यानी कलियुग (सू.सि.-1.22/23) का इस समय यानी अप्रैल 2003 में 5104वाँ सौर वर्ष चल रहा है। दि एज ऑफ अर्थ नामक वैज्ञानिक पुस्तक में जहाँ पृथ्वी की अब तक की आयु को विभिन्न दृष्टिकोणों से 370 मिलियन वर्ष आँका गया है, वहीं एस.एन.वी.एन.सी.वी. के विज्ञानियों ने सूर्य तथा सौरमंडल की कुल आयु को साढ़े चार अरब वर्ष ही माना है। ये दोनों वैज्ञानिक गणनाएँ भारतीय पद्धति द्वारा उद्घाटित किए गए समय परिमाण के समकक्ष ही बैठती हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि काल-निर्धारण की भारतीय गणन-पद्धति तुलनात्मक दृष्टि से दोषरहित एवं वैज्ञानिक कसौटी पर अधिक खरी है। भारतीय अवधारणाओं के अनुसार सृष्टि-उत्पत्ति से लेकर अब तक के व्यतीत हुए कालखंडों को प्रत्येक भारतीय अनुष्ठानों में पढ़े जानेवाले संकल्प मंत्र यानी श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य सकल जगदाधारस्य आदि नारायणस्य श्री महा विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्याद्य परार्धद्वय जीविनो श्री ब्रह्मणस्ये द्वितीयपराद्धे (ब्रह्मा के इक्यानबे वर्ष के) श्री श्वेत वाराह कल्पे प्रथम दिने अन्हो द्वितीये यामे (पहले दिन के) चतुर्दश मन्वन्तराणां मध्ये संप्रति वैवस्वत नाम सप्तम मन्वंतरे (सातवें मन्वंतर के) युगानां त्रिध्ने याते अष्टविंशातिं चतुर्युगांतरे (अट्ठाईसवें महायुग के) कलियुगे कलि प्रथम चरणे (यानी ई.पू. 3102 से प्रारंभ हुए कलियुग के पहले भाग में) त्रयनाभिचक्रे मध्ये तदंतर्वतिनि चतुर्दशभुवन तलांतर्गतेऽस्मिन् मार्तण्डऽऽदि ग्रह मण्डले (यानी आकाशगंगा के चौदह तारक समूहों में स्थित सौर नामक ग्रहमंडल में) भूलोके (यानी पृथ्वी पर) ब्रह्मावर्तक क्षेत्रे (यानी ब्रह्मा की भूमि पर) जम्बूदीपान्तर्गते (यानी एशिया में) आर्यावर्ते (अर्थात् दजला-फरात से लेकर चंपादेश यानी वियतनाम तक का क्षेत्र) भरत खंडे (यानी अपगणस्थान या अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्मदेश या बर्मा या आजकल के म्यांमार तक का क्षेत्र) भारतवर्षे (भारत के) पुण्य अमुक प्रदेशे अमुक ग्रामे ('प्रांत के शहर या कस्बा या गाँव में) श्रीमन्नृप विक्रमार्क समयातीत संवत् अमुक सहस्त्र अमुक शत अमुक तमे वर्षे प्रभवादि षष्टि संवत्सराणां नाम्नि मध्ये वर्तमाने यथा नाम अमुक संवत्सरे तद् द्वय अयनेषु मध्ये अमुकायने वसन्तादि षट् ऋतुषु मध्ये अमुक ऋतौ महामाङ्गल्यप्रदे मासानाम उत्तमे चैत्रादि द्वादश मासानां मध्ये अमुकमासे कृष्णशुक्लयोर्मध्ये अमुक पक्षे पञ्चदशतिथिनां मध्ये अमुक तिथौ तद् शुभ सप्तवासराणां मध्ये अमुक वासरे, सप्तविंशति नक्षत्राणां मध्ये अमुक नक्षत्रे सप्तविंशति योगानां मध्ये अमुक योगे, सप्तकरणानां मध्ये अमुक करणे, द्वादश लग्नां मध्ये अमुक लग्ने च त्रिंश मुहूर्त मध्ये अमुक मुहूर्ते तद् भुक्त यथा संख्यानाम क्षणे प्रारंभ धर्मसंस्थापनार्थम् अनुष्ठानाय अमुक गोत्र प्रवर च अमुक कुलस्यः उत्पन्न श्रीमन्न नामाहं आत्मजः तद् सौभाग्यवती भार्याम (यानी वर्तमान पंचांग के अनुसार वर्ष, अयन, ऋतु, माह, पक्ष, दिन व समय, मुहूर्त व क्षण विशेष में कुल /गोत्र में उत्पन्न श्री व श्रीमती के पुत्र व उनकी सौभाग्यवती भार्या द्वारा किए जा रहे इस संस्कार) के द्वारा स्मरण करा करके अनुष्ठानकर्ता को काल से, ब्रह्मांड से, प्रकृति से, सौरमंडल से, भूमि व स्थान विशेष तथा पूर्वजों से जोड़ने का जो अभिनव प्रयास किया जाता है, उसके इस अद्भुत गणितीय आधार तथा विराटत्व पर गंभीरता से शायद ही कोई मनन करता होगा।

भारतीय पंचांगों की ही तरह पाश्चात्य देशों में वर्ष-दिन पद्धति का हिसाब रखने के लिए अपने समय के विख्यात यूरोपीय सम्राट् जूलियस सीजर ने मिनी ज्योतिषी सोसिजेनस के सुझाव पर रोमन महीनों में सुधार करके आजकल के प्रचलित अंग्रेजी कैलेंडर को ई.पू. 46 में लागू किया था। जूलियस सीजर द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इसे 'जूलियन कैलेंडर' भी कहा जाता है। कैलेंडर मूलतः लैटिन शब्द है। प्राचीन समय में रोमवासियों को सूर्य च चंद्र से संबंधित घटनाओं की पूर्व-सूचनाएँ धर्मगुरुओं द्वारा आवाज लगाकर दी जाती थीं। अतः यूनानी शब्द 'कालेंड', जिसका शाब्दिक अर्थ 'मैं चिल्लाता हूँ' के प्रतीक स्वरूप लैटिन में दिन-वर्ष पद्धति के लिए 'कैलेंडर' शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। सन् 1582 में पोप ग्रेगोरी (तेरहवें) ने वास्तविक घटित वर्ष-मान से जूलियन वर्ष में पड़ रहे 0.0078 दिन के अधिक अंतर को सुधारकर इसकी वर्ष अवधि 365.2425 तय कर दी। इस सुधार के कारण वर्तमान कैलेंडर को ग्रिगोरियन कैलेंडर भी कहा जाने लगा। सूक्ष्म गणितीय गणना के कई दोषों के उपरांत भी पाश्चात्य बयार के कारण पूरे विश्व में इसका उपयोग हो रहा है, जबकि खगोलीय वृति के सूक्ष्मतम मानों के अनुरूप अधिक प्रामाणिक तथा वैज्ञानिक माने जानेवाले भारतीय पंचांगों की उपयोगिता भारतवर्ष में ही मात्र संस्कारों तक सीमित होकर रह गई है।

यह सर्वविदित है कि सृष्टि का प्रारंभ वनस्पतियों से ही हुआ था। वनस्पतियों को आह्लादित करनेवाला मधुरस प्रकृति को वसंत-ऋतु में ही मिल पाता है। मधुमाधवौ वसन्तस्य के प्राकृतिक सौहार्द के कारण इस ऋतु में मानव-चित्त ही कोमल वृत्ति से आपूरित नहीं होता है, अपितु नई कोपलों के द्वारा सृष्टि भी चराचर जगत् में नवीनता की हरियाली बिखेर देती है। प्राणी मात्र में नूतन स्फूर्ति का संचार करनेवाली इस प्राकृतिक हरीतिमा के प्रमाणस्वरूप, बसंत ऋतु में पड़नेवाले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही संवत्सरों को प्रारंभ करने की परिपाटी शुरू की गई। अनुमान-प्रमाण के इसी दर्शन के आधार पर पल्लवित हुई आस्थाओं ने यह माना कि चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा के सूर्योदय के समय ही ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना का यज्ञ प्रारंभ किया था। हिमाद्रि नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ में इसी भाव पर एक श्लोक की रचना भी की गई है-चैत्र मासि जगद् ब्रह्म सृजर्स प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्ष समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति। ‘स्मृति कौस्तुभ' के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रेवती नक्षत्र के विष्कुंभ योग में विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था और इसी मत्स्य के सहयोग से वैवस्वत मनु जल-प्रलय से मानवों को बचाकर उन्हें पृथ्वी पर पुनः विस्थापित कर पाए थे। भारतीय परंपरा में इन्हीं प्रतीकों के आधार पर प्रारंभ किए गए सृष्टि संवत्, पृथ्वी संवत्, वैवस्वत संवत्, कलि संवत् आदि की गणनाएँ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही की जाती रही हैं। आंध्र में इसी दिन 'उगादि पर्व' यानी युग-प्रारंभ का उत्सव मनाया जाता है। राजा वसु के विजय की स्मृति में महाराष्ट्र तथा पश्चिम भारत में 'गूढी पाड़वा' के रूप में इस तिथि को मनाने की प्रथा है।

सिंधु प्रांत में 'चेटी चंडी' (चैत्र का चंद्र) कहकर और इरानियों में इस तिथि को 'नौरोज' (नया दिन) कहकर मनाया जाता है। इसलामिक मान्यताओं के अनुसार उनकी वर्ष गणना (हिजरी) का प्रारंभ भी भारतीय चैत्र-वैशाख मास से ही होता है। चीन व जापान इत्यादि पूर्व के देशों में भी उनका नववर्ष इसी तिथि के आस-पास से प्रारंभ होता है। यही नहीं, सन् 1752 तक इंग्लैंड में 25 मार्च तथा रोम में 15 मार्च को ही वर्ष का पहला दिन माना जाता रहा है। संभवतः 687 ईस्वी पूर्व की पृथ्वी की परिभ्रमण गति के कारण 360 दिनों के एक वर्ष के अनुरूप ही विश्व के विभिन्न अंचलों में चैत्र शक्ल की प्रतिपदा की तात्कालिक तिथि के प्रतीकात्मक पड़े दिन को ही नए वर्ष का पहला दिन मान लिया गया होगा। लैटिन भाषा में सात को सेप्टम, आठ को ओक्टो, नौ को नवेम तथा दस को डिसेम कहा जाता है। किंचित् यही कारण रहा था कि मार्च (कूच करना) से प्रारंभ हुए जूलियन कैलेंडर के सातवें, आठवें, नौवें व दसवें माह को इन्हीं नामावलियों के अनुरूप क्रमशः सेप्टेंबर, अक्टूबर, नवंबर तथा दिसंबर कहा गया है। कालांतर में ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित एक विधेयक के अनुसार इग्लैंड में सन् 1753 से पहली जनवरी को वर्ष का पहला दिन मानने का एक नया नियम बनाया गया। बिना किसी सम्यक् विवेचना के आपाधापी में क्रियान्वित किए गए इस अनुपालन के परिणामस्वरूप मार्च के क्रम से पड़नेवाले उपर्युक्त महीनों की नामावलियों में तदनुसार कोई परिवर्तन नहीं हो पाया। पोप द्वारा मान्यता दिए जाने के बाद अपनी क्रम तथा अंकगत त्रुटियों के उपरांत भी जूलियन कैलेंडर का यह परिवर्तित स्वरूप ईसाई मतावलंबी राष्ट्रों, ब्रिटेन के उपनिवेशों तथा बाद में अंग्रेजियत के बढ़ते प्रभाव के कारण एक प्रथा के रूप में विश्व स्तर पर धीरे-धीरे प्रचलित हो गई। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि पहली जनवरी को साल का पहला दिन मनाने का कोई परंपरागत आधार ईसाई धर्म के अनुसार भी नहीं बनता है, बल्कि इसे पाश्चात्य अपसंस्कृति की मानसिकता में आकंठ डूबे समाज द्वारा एक पराए राष्ट्र (यूनाइटेड किंगडम) की विधायिका द्वारा पारित की गई त्रुटिपूर्ण नियमावली का अंधा अनुसरण मात्र ही माना जा सकता है।

नक्षत्रों एवं ग्रहों की खगोलीय गति के अनुरूप समय का मान निकालने के लिए बनाए गए सृष्टि तथा युग संवत्सरों के अलावा भारतीय शास्त्रों में उन राजाओं को भी अपना-अपना अलग संवत् चलाने का अधिकार दिया गया, जिन्होंने राज्य-विस्तार के साथ-साथ प्रजा को सुसंस्कृत व समृद्ध बनाने का भी यत्न किया था। महान् प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य के सिंहासनारूढ़ होने के प्रतीकस्वरूप प्रचलित विक्रमी संवत्, शालीवाहन द्वारा शकों पर विजय प्राप्त करने की स्मृति में अपनाया गया शक संवत्, गौतमबुद्ध के बोधिसत्त्व से प्रेरित बुद्ध संवत्, महावीर के निर्वाण पर जैन संवत्, बंग संवत्, कोल्लम संवत् आदि इसके प्रमाण हैं। इसी आधार पर विश्व की विभिन्न सभ्यताओं-यूनान, मिन, यहूदी, ईसाई, इसलाम आदि ने समय-समय के अपने उद्भवों की स्मृति को सँजोए रखने के लिए अपने अलग-अलग संवतों को प्रारंभ किया था। पं. रघुनंदन शर्मा की पुस्तक 'वैदिक संपत्ति' में वर्णित संदर्भो तथा कल्याण (चौबीसवें विशेषांक) में प्रकाशित विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित संवतों से संबंधित-लेख (पृ. 755) में ज्योतिर्विद् पं. देवकीनंदनजी द्वारा किए गए तार्किक विश्लेषण के आधार पर सृष्टि-उत्पत्ति से लेकर अब तक (जूलियन कैलेंडर के अप्रैल 2003 तक) के व्यतीत काल-खंड का स्वरूप इस प्रकार बनता है-

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