भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
प्रलय
कालगणना के अनुसार तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष की अवधि के प्रति महायुगों के
हिसाब से एक हजार महायुगों के एक कल्प को जहाँ सूर्यादि ग्रहों की संपूर्ण
आयु की मान्यता दी गई है, वहीं ऐसे ही बहत्तर हजार कल्पों की समय-सीमा को
ब्रह्मांड की पूर्ण अवधि माना गया है। आधुनिक एस्ट्रोनॉमी भी सोलर-सिस्टम के
संपूर्ण अस्तित्व को इसी अवधि के समकक्ष यानी साढ़े चार अरब वर्ष तक का मानते
हुए यह स्वीकार करता है कि कालक्रम में एस्ट्रो-एक्सपैंसन की चरम स्थिति पर
यूनीवर्स में सिकुड़न आनी प्रारंभ हो जाएगी, जो अंततः इसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म
पिंड में परिवर्तित कर प्रकृत में विलीन होने को बाध्य कर देगी। उपर्युक्त
खगोलीय आकलनों के आधार पर इतना सिद्ध हो चुका है कि हमारा सोलार-सिस्टम तथा
यूनीवर्स-दोनों ही अपनी निर्धारित अवधि के लगभग आधे भाग को अब तक पार कर चुके
हैं और शेष इतने ही समय के उपरांत क्रमशः इनका विसर्जन प्रकृत में हो जाएगा।
चूँकि इन घटनाओं की अंतिम परिणति द्रष्टव्य जगत् (Galatic Universe) का
प्रकृत में विलीन होना ही है, अतः भारतीय शास्त्रों में इन्हें प्राकृतिक
विलय या प्र-लय (Quiescent state of Nature) की संज्ञा दी गई है। इन दोनों ही
घटनाक्रमों में ब्रह्मांड का प्रकृत में विसर्जन होना आनुपातिक दृष्टि से एक
बड़ी घटना मानी जाती है, अतः परिणाम की गुरुता के अनुरूप इसे ब्राह्म-प्रलय
(Universal Dissolution) के नाम से परिभाषित किया गया है। इसी प्रकार
ब्रह्मांड के अस्तित्व में बने रहने तक इसकी विभिन्न आकाशगंगाओं में भ्रमणशील
अनगिनत सूर्यादि नक्षत्रों तथा उनके ग्रह-मंडलों का हजार महायुगों (चार अरब
बत्तीस करोड़ वर्ष) के अंतराल पर क्रमानुसार घटनेवाले नियमित विघटनों को उनकी
प्रवृत्ति के अनुरूप नैमित्तिक प्रलय (Solar Disannul) की संज्ञा दी गई है।
उपर्युक्त वर्णित गंभीर घटनाक्रमों के अलावा प्राकृतिक नियमों के अनुरूप
प्रलय ग्रह-मंडलों पर भी अलग से निश्चित अंतरालों पर कुछ प्रलयंकारी घटनाएँ
घटती रहती हैं, जिन्हें उनके स्वभाव व स्वरूप के अनुसार पुनः दो भागों में
वर्गीकृत किया गया है। इसी तरह के एक घटना-क्रम में जब आकाशगंगा के सातों
सूर्य अपनी निश्चित गति से अंतरिक्ष में चक्कर लगाते हुए प्रति तैंतालीस लाख
बीस हजार वर्षों में कुछ समय के लिए आनुपातिक दृष्टि से एक-दूसरे के नजदीक
पहुँच जाते हैं तो इनके संयुक्त प्रभाव से सूर्य-रश्मियों की उष्मा में सात
गुणा वृद्धि हो जाती है (ते सप्त रश्मयो भूत्वा यैकैको जायते रविः-वायु
पुराण-7.46)। सूर्य-रश्मियों के इस भयंकर ताप के प्रभाव से भूमंडल के सभी
जलाशय सूख जाते हैं और भू-मंडल जलने लगता है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार
संवर्तक नामक इस विनाशक कालाग्नि के सर्वत्र फैल जाने से संपूर्ण जैविक
सृष्टियाँ इस दाह में भस्म हो जाती हैं। इस घटना का वर्णन करते हुए महाभारत
के वनपर्व में कहा गया है कि 'युगान्तकाले संप्राप्ते कालाग्निर्दहते जगत्'।
फिर इन सातों सूर्यों के स्थिति-परिवर्तन की दशा में वायुमंडल घने मेघों से
आच्छादित हो उठता है और तदनुसार घनघोर वृष्टियों का एक अनवरत दौर प्रारंभ हो
जाता है। 'मत्स्य पुराण' में इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि
'आद्यप्रभृति अनावृष्टिर्भविष्यति महीतले'। इस अनावृष्टि के प्रभाव से धरती
पर व्याप्त संवर्तक अग्नि बुझ जाती है और पृथ्वी जलमग्न हो जाती है। इस तरह
मेघों के प्रकोपों के छंटने पर सूर्य-रश्मियों की उष्माओं से जल सूखने लगता
है। इस प्रकार जल के सूखने पर धीरे-धीरे भूमि का निकलना प्रारंभ हो जाता है
और भूमि के निकलने के पश्चात् सृष्टि-चक्र पुनः चल पड़ता है। भारतीय
मान्यताओं के अनुसार मानवी उत्पत्ति के उपरांत घटित इस प्रकार के नौ
महाविनाशों से जैविक-सृष्टि की रक्षा भगवान् विष्णु द्वारा अब तक की जा चुकी
है। कुछ इसी तरह के विश्वासों के साथ मयांस आस्थाओं में भी पृथ्वी तत्त्व,
वायु तत्त्व, अग्नि तत्त्व तथा जल तत्त्व के प्रभाव से अब तक हुए चार
महाविनाशों को मान्यताएँ प्रदान की गई हैं, जबकि अगले महाविनाश के बारे में
उनकी मान्यताएँ भूकंप से संबंधित हैं। अरस्तू (अफलातून) जैसे विद्वान् भी इन
घटनाक्रमों को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार करते थे। प्लूटो का यह वक्तव्य कि
"Both Human race and the globe they inhabit shall successively perish by
water and fire." 57 घटनाओं की सम्यक् पुष्टि करते हैं। सिएटल स्थित वाशिंगटन
विश्वविद्यालय के भूविज्ञानी पीटर वार्ड द्वारा हाल में किए गए दक्षिण
अफ्रीका के कुछ चट्टानों के विश्लेषणों से यह रहस्योद्घाटित हुआ है कि आज से
पच्चीस करोड़ दस लाख वर्ष पूर्व नदियाँ अचानक ही तलछट या अवसाद से भर गई थीं।
इससे यह संकेत मिलता है कि उस समय पृथ्वी पर सर्वाधिक विनाशकारी 'प्रलय' हुई
थी, इसके फलस्वरूप पेड़-पौधों व जैविक प्रजातियाँ पूरी तरह से विलुप्त हो गई
थीं। श्री वार्ड के अनुसार यह महाप्रलय आज से साढ़े छह करोड़ वर्ष पूर्व हुई
प्रलय (जिसमें डायनासोर जैसे विशालकाय प्राणियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो
गईं) से भी कहीं अधिक भयंकर थी। अतः निर्विवाद रूप से इसे वनस्पतियों तथा
जैविक प्रजातियों को समाप्त कर देनेवाले सारे विनाशों की 'जननी' कहा जा सकता
है। प्रो. वार्ड द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार, यह घटना पर्मियन काल के
अंत तथा ट्रियासिक काल के प्रारंभ में घटी थी (स्रोत : दैनिक जागरण, नई
दिल्ली 14-2-2000)। भारतीय गणना के अनुसार प्रति मन्वंतरों की अवधि
30,85,71,429.9 वर्ष की हुआ करती है। इस प्रकार प्रो. वार्ड द्वारा निकाला
गया यह घटना-काल संभवतः वर्तमान मन्वंतर (यानी वैवस्वत मन्वंतर) के प्रारंभ
होने के समय को ही इंगित करता है। ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका और उत्तरी यूरोप
में किए गए इसी तरह के अन्य वैज्ञानिक शोधों के द्वारा भी लाखों वर्षों के
अंतरालों पर नियमित रूप से घटनेवाले विभिन्न भौगोलिक परिवर्तनों की पुष्टि की
गई है। प्राकृतिक नियमों के अनुरूप इस तरह की घटनाएँ महायुगों के संधि-काल
में (प्रति तैंतालीस लाख बीस हजार वर्षों के उपरांत) नियमित रूप से घटती रहती
हैं। प्रत्येक युगों के अंत में प्रारंभ होनेवाली इन प्राकृतिक आपदाओं को
इनकी प्रवृत्ति के अनुरूप युगांतर-प्रलय (External/ Internal Collision) नाम
से संबोधित किया जाता है।
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