भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
|
6 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
इस युगांतर प्रलय के अतिरिक्त पृथ्वी के समशीतोषण कटिबंधों में हिम तथा
अंतर्हिम युगों तथा उष्णकटिबंधों में वृष्टि एवं अंतर्दृष्टि युगों के
साथ-साथ अन्यान्य स्थानों में जल-प्लावनों का दौर भी निश्चित अंतरालों पर
चलता रहता है। प्रसिद्ध भूतात्त्विक विशेषज्ञ लीकी के अनुसार, अकेले यूरोप
में ही कालगत समतावाले चार हिमयुगों एवं उनके मध्य घटे तीन अंतर्हिम युगों के
साक्ष्य अब तक मिल चुके हैं। इसी प्रकार भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार अफ्रीका
के अंचलों में चार वृष्टि तथा इसके अनंतर तीन अंतर्दृष्टियों का युग भी घट
चुका है। हिम तथा वृष्टि युगों की यह खोज ए. वर्नहार्डी तथा लुईस अगासिज
द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में प्रतिपादित की गई अवधारणाओं के आधार पर प्रारंभ
हुई थी। नो. चार्ल्स हैपगुड के 'आइसोस्टैसी' नामक सिद्धांत के अनुसार
भू-चुंबकीय तनावों के कारण पृथ्वी के ध्रुवों की दिशाएँ परिवर्तित होती रहती
हैं (Shifting or reversing of the poles may be due to magnetic tensions
and stress built-up within a gigantic generator-the Earth itself.) और
इन्हीं के फलस्वरूप हिम तथा वृष्टि युगों का अस्तित्व भी उभरता रहता है।
प्रो. चार्ल्स की ही भाँति हिम तथा वृष्टि युगों के सूक्ष्म खगोलीय कारणों पर
प्रकाश डालते हुए इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका स्पष्ट करता है कि 23 1/2 अंश
झुकाव के साथ पृथ्वी अपनी धुरी पर लटू की भाँति घूमती हुई झूम भी रही है।
पृथ्वी के इस प्रकार झूमने (Spin) से बननेवाले शंकु (Cone) का एक चक्कर
छब्बीस हजार वर्ष में पूरा होता है (In astronomy, an effect connected
mainly with a gradual change of the direction of the earth's axis of
rotation. There is a general resemblance between the motion of the earth
and that of a spining top. It is well known that when a spining top is
slightly disturbed, its axis gyrates, or precesses round the vertical so
that it traces out a cone; the earth's axis similarly describes a cone at
the rate of one revolution in about 26,000 year. ... In this way the North
Pole of the celestial sphere describes among the constelations a circle of
23/2 degree radius, making a revolution in 26,000 years - En.
Brit.-Vol.-18)।
झूमने की इस प्रक्रिया में पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव का झुकाव प्रति तेरह हजार
वर्ष के क्रम से एक बार सूर्य के ठीक सम्मुख तथा विपरीत होता रहता है। उत्तरी
ध्रुव का झुकाव जब सूर्य की विपरीत दिशा में गमन कर रहा होता है तो ताप
न्यूनता के कारण पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में शीत का अत्यधिक प्रकोप हो जाता
है। वैज्ञानिक भाषा में तेरह हजार वर्ष की इस शीतलहरी को Glacial Period के
नाम से चिह्नित किया जाता है। शीत की चरम स्थिति के कारण इस अवधि में उत्तरी
गोलार्ध पर कहीं-कहीं दस से पंद्रह हजार फीट ऊँचाई तक बर्फ की परतें जम जाती
हैं {Nearly half of the Europe was covered by a single vast sheet
(commonly known as Scandinavian Ice Sheet), which is believed to have
attained a maximum thickness of 10,000. to 15,000 ft. Similarly much of
North America and Siberia including Green land were overspread by mountain
glaciers by great ice-sheets with varying thickness of 5,000 to 10,000 ft.
from the surface.-En. Brit.-Vol.-18}।
इसी प्रकार उत्तरी ध्रुव के 23 1/2 अंश झुकाव का सूर्य के सम्मुख आने की
प्रक्रिया के साथ-साथ उत्तरी गोलार्ध के तापक्रमों में वृद्धि और इसके
फलस्वरूप जमी हुई बर्फ की परतों का धीरे-धीरे पिघलना शुरू हो जाता है।
भौगोलिक संदर्भ में तेरह हजार वर्ष की इस आनुपातिक ऊष्मता को Inter-glacial
Period कहा जाता है। तदनुसार सूर्य-ताप के बढ़ते प्रभाव से बर्फ के पिघलने व
फिर वाष्पीकरण के परिणामस्वरूप अनावृष्टियों के अनवरत दौर के कारण यहाँ के
निचले भू-भागों में जलप्लावनों की भयानक घटनाएँ घटती हैं। सौर-परिभ्रमण की
यथावर्णित शैलियों के फलस्वरूप पृथ्वी पर हिम तथा जलप्लावनों के इस क्रम को
प्रति तेरह हजार वर्ष के नियमित अंतरालों पर अबाध रूप से ही घटते रहना चाहिए।
विश्व मौसम अनुसंधान संगठन (World Meteorological Organisation-WMO) व
राष्ट्रसंघ के पर्यावरण कार्यक्रम (United Nation's Environment
Programme-UNEP) के संयुक्त तत्त्वावधान में गठित हुई वैज्ञानिकों की सक्षम
पीठ (Intergovernmental Panel on Climate Change's-IPCC) द्वारा विश्व का
ताप-वृद्धि (Global warming) पर किए गए अध्ययनों से भी भू-तापमान में कुछ इसी
तरह के अंतरालों पर नियमित उतार-चढ़ाव के संकेत मिले हैं। IPCC से संबद्ध रहे
भारतीय तकनीकी संस्थान (IIT, New Delhi) के प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी (CSO)
डॉ. मुरारी लाल द्वारा अंटार्कटिका की हिम-गुदाओं (Ice-Core) के विश्लेषणों
के आधार पर बनाए गए रेखाचित्र (Graph) पिछले 1,60,000 वर्षों में आई ताप की
इस नियमित अस्थिरताओं को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रतिबिंबित करते हैं-
पिछले 1,60,000 वर्षों के भू-तापमानों में आई अस्थिरताओं को दरशाने हेतु बनाए
गए इस संवेदी सूचकांक के फलक प्रति तेरह हजार वर्षों की नियमित अवधियों के
अतिरिक्त एक लाख वर्षों से अधिक के अंतरालों पर हुए तापक्रम-संबंधी व्यापक
उतार-चढ़ावों को भी इंगित करते हैं। तापक्रमों में आए उछाल की अधिकतम सीमाएँ
जहाँ एक लाख उन्नीस हजार व फिर पंद्रह हजार वर्ष की अवधियों को निर्दिष्ट
करती हैं, वहीं इसकी न्यूनतम सीमाएँ भी बीस हजार वर्ष पूर्व तथा एक लाख
छत्तीस हजार वर्ष पूर्व के आनुपातिक अंतरालों को ही रेखांकित करती हैं। हिम
विशेषज्ञों के आकलनों के अनुसार एक लाख उनतीस हजार वर्ष पूर्व भू-तापमानों
में आई इस अभूतपूर्व वृद्धि के परिणामस्वरूप पृथ्वी के अधिकांश हिमखंड
पूर्णतः पिघल गए थे और तदनुरूप महासागरों के जलस्तरों में भी आज की तुलना में
300 से लेकर 400 फीट का उछाल आया था। ऋग्वेदकालीन संदर्भो (दसवें मंडल) में
विंध्य पर्वतमाला से दक्षिण समुद्र होने का उल्लेख संभवः इसी स्थिति मात्र को
इंगित करके सीमित नहीं रहता है, अपितु वैदिक रचनाकाल के प्रामाणिक समय की ओर
भी येन-केन-प्रकारेण संकेत करता ही प्रतीत होता है। मैसोजोइक काल में भी
किचिंत् कुछ ऐसी ही परिस्थितियों वश लैमूरिया के विस्तृत भूखंड के जलमग्न हो
जाने पर लंका, सुमात्रा, जावा, वोर्नियो, न्यूजीलैंड, तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया
आदि द्वीपों तथा अफ्रीका जैसे महाद्वीपों के अस्तित्व में आने का प्रमाण दिया
जाता है। यही नहीं, उपर्युक्त ग्राफ में निर्दिष्ट पंद्रह हजार वर्ष पूर्व से
प्रारंभ हुई अस्वाभाविक तापवृद्धि के अति नूतन चरणों में हिमादि के पिघलने से
देश-काल के अनुरूप घटित विभिन्न जलभरावों के प्रतीकात्मक ही आधुनिक विश्व के
प्रायः सभी प्राचीन ग्रंथों में बाढ़-विभीषिकाओं (जल-प्रलय या Deluge) का
आलंकारिक वर्णन समान रूप से मिलता है। कालांतर में कालासागर व कश्यप सागर की
सीमाओं में हुई बढ़ोतरी के साथ-साथ खंभात व युक्तान समेत द्वारिका की संपूर्ण
जल-समाधि की क्रमिक घटनाओं द्वारा ही जलप्लावन के इस भयानक चक्र का समापन हो
पाता है। भू-तापक्रमों में आई विविधताओं की इन स्थितियों से यह अनुमान सहज ही
लगाया जा सकता है कि सौर-कारणों से प्रति तेरह हजार वर्षों की चक्रगत
अस्थिरताओं की अपेक्षा पृथ्वी पर व्यापक जलवायविक उतार-चढ़ावों की अस्वाभाविक
प्रक्रियाएँ खगोलीय प्रभावों के कारण लंबे अंतरालों पर ही घटती रही होंगी।
मौसम विशेषज्ञों की दृष्टि में भी यद्यपि पृथ्वी के तापक्रमों में आई
विविधताओं के कारण CO2 गैसों में आई घनत्वों तथा अन्य प्राकृतिक उद्वेलनों के
ही परिणाम रहे थे, तथापि सौर-ऊर्जाओं के मूल प्रभावों को सर्वोपरि स्वीकार
करने में इन्हें कोई हिचक प्रतीत नहीं होता है। डॉ. मुरारी लाल इस तथ्य को
स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "The earth's Climate is the result of
extremely complex interactions among the atmosphere, the Oceans, the land
masses and living organisms, which are all continuously warmed by primary
source of energy ie Solar irradiance." तापक्रम में हुई आनुपातिक वृद्धि के
प्रभाववश हिम-खंडों के पिघलने की अंतिम बड़ी घटना (जलप्रलय या Deluge) को
विशेषज्ञ आज से साढ़े ग्यारह से लेकर साढ़े दस हजार वर्ष पूर्व घटित होने का
अनुमान लगाते हैं। विश्वप्रसिद्ध भविष्यवेत्ता 'मिशेल द नास्त्रेडमस'
(फ्रांस) ने 3797 ईस्वी में विश्व के महाविनाश की संभावना व्यक्त की है। उनकी
इस भविष्यवाणी के अनुसार, संभावित त्रासदी को घटने में अब से कुल 1796 वर्ष
ही शेष हैं। इस अनुमानित समय-सीमा को यदि साढ़े ग्यारह हजार वर्ष पूर्व घटित
पिछले प्रलय की अवधि से जोड़ दिया जाए तो अनुमानित त्रासदी का कालचक्र,
खगोलीय आकलनों के अनुरूप लगभग तेरह हजार वर्ष की अवधि के आस-पास ही बैठता है।
इसके अतिरिक्त विभिन्न मानव-प्रजातियों के अस्तित्व में आने में व्यतीत हुए
समयांतरों को भी तेरह हजार वर्षों के निश्चित अंतराल पर घटित होनेवाली इन
प्रलयंकारी घटनाओं के प्रमाणस्वरूप अनुभव किया जा सकता है। मानवशास्त्रियों
के अनुसार 38000 वर्ष पूर्व यूरोप की धरती पर अस्तित्व में आई नियोंथ्रोपिक
समूह के क्रोमैग्नन मानव-प्रजातियाँ 25000 वर्ष पूर्व तक बनी रही थीं।
तत्पश्चात यहाँ पर बारह हजार वर्ष पूर्व तक आधुनिक मानव प्रजाति
(होमोसैपियंस) की मैग्डेलियन सभ्यताएँ कायम रही थीं। इस तरह यह स्पष्ट अनुभव
किया जा सकता है कि क्रोमैग्नन से लेकर मैग्डेलियन तक व फिर मैग्डेलियन
सभ्यता के प्रारंभ से लेकर पश्चिमी धरती पर घटित हुए पिछले महाप्रलय का आपसी
अंतर प्रति 13000 वर्षों का ही रहा था। निश्चित रूप से प्रजातियों एवं
सभ्यताओं के इस उतार-चढ़ाव का संबंध नियमित अंतरालों पर घटनेवाली विविध
प्राकृतिक त्रासदियों से ही रहा था। इन तथ्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा
सकता है कि पृथ्वी पर प्रति 13000 वर्षों के अंतराल से घटनेवाली हिम तथा
वृष्टि (जलप्लावन) की इन प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों में
रहनेवाली जैविक सृष्टियों को आघात पहुँचता रहता है। तदनुसार यह सभी क्षेत्र
प्राणीविहीन हो जाया करते हैं। क्रमिक अंतरालों पर घटनेवाली इन आंशिक आपदाओं
को भारतीय शास्त्रों में नित्य-प्रलय (Periodical Catastrophe) की संज्ञा दी
गई है।
|