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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


इन निश्चित क्रमों के अतिरिक्त अकाल, महामारी, चक्रवाती बाढ़, भूकंप तथा ध्रुवीय क्षेत्रों के हिमों के पिघलने से भी पृथ्वी का जनजीवन यदा-कदा प्रभावित होता रहता है। सुमेरु, मेसोपोटामिया, मोरक्को, ग्वाटेमाला, निकारागुआ, हांडुरास, तंजानिया व 1790, 1877, 1899, 1918 में घटित भारत के विश्वप्रसिद्ध दुर्भिक्ष; सन् 191718 के विश्वव्यापी इन्फ्लूएंजा व प्लेग महामारी; ई.पू. 413, सन् 1000, सन् 1900 व सन् 1993 में टाईबर, डेन्यूब, व्हांग-हो, मिसिसिपी व मिसौरी आदि नदियों में क्रमशः आई बाढ़-विभीषिकाएँ; सन् 1607 में ब्रिटेन के सोमरसेट व ब्रिस्टल, जून 1889 में पेनसिल्वानिया के जॉन्सटाउन, सन् 1900 में गैल्वेस्टन (टेक्सास) तथा सन् 1977 व 1999 में भारत के आंध्र प्रदेश व उड़ीसा में क्रमशः घटित चक्रवाती बाढ़ की त्रासदियाँ एवं सन् 1920 में चीन, सन् 1939 व 1975 में तुर्की, सन् 1966 व 1991 में ईरान, सन् 1973 में जापान व पचास व साठ के दशक में भारत के असम व बिहार, सन् 1991 में गढ़वाल, सन् 1993 में लातूर, 26-1-2001 को गुजरात व फरवरी 2001 में एल-सेल्वाडोर तथा सुमात्रा में आए भयंकर भूकंप आदि की घटनाएँ इनके कुछ ज्वलंत प्रमाण हैं। मौसम विशेषज्ञों के अनुसार पृथ्वी द्वारा धूरी परिवर्तन किए जाने से भी उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्ध की जलवाय में अभूतपूर्व परिर्वतन हो जाता है। हग ब्राउन नामक एक मौसम विशेषज्ञ का यह मानना है कि पृथ्वी को अपनी वर्तमान धुरी पर दिशा-परिवर्तन किए लगभग पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ज्ञातव्य रहे कि भारतीय मान्यताओं में कलियुग को प्रारंभ हुए भी लगभग इतने ही वर्ष हुए हैं। ब्राउन के अनुसार, पृथ्वी द्वारा किए गए इस धुरी-परिवर्तन के उपरांत उत्तरी गोलार्ध शनैः-शनैः गरम होता गया व इसका कमोवेश प्रभाव दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्रों (अंटार्कटिका) के तापक्रमों में भी अनुभूत हो रहा है। हरित पट्टी से संबंधित नासा (अमेरिका) स्थित प्रयोगशाला (Laboratory for Hydrospheric Science) के मौसम विज्ञानियों के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों {अर्थात् कार्बन-डाइऑक्साइड (Carbon dioxide-CO2), मिथेन (Methane - CH4), ओजोन (Ozone-03) व नाइट्रस ऑक्साइड (Nitrous Oxide - N20)} जैसे प्राकृतिक तथा कार्बन टेट्राफ्लोराइड (Carbon Tetrafluoride-CF4), सल्फर हेक्साफ्लोराइड (Sulfer Hexafluoride - SF6), क्लोरोफ्लूरो काढूस (Clorofluoro Carbons-CFCs) व हाइड्रोफ्लूरो काईस (Hydrofluoro Carbons - HFCs) आदि उद्योग-उत्सर्जित गैसों के घनत्वों में लगातार हो रही बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी के तापमान में औसतन (0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। धरातलीय तापक्रमों में हो रही इस वृद्धि के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों के हिम जहाँ तैंतीस किलोमीटर प्रति दशाब्दी की दर से पिघल रहे हैं, वहीं इनके प्रभाव से समुद्र का जल स्तर भी 2.5 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। अमेरिका स्थित कोलोराडो विश्वविद्यालय के National Snow and Ice Data Centre ने अपने अध्ययनों में यह पाया है कि अंटार्कटिका प्रायद्वीप में द्रुतगति से बढ़े तापक्रमों के कारण इक्कीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यहाँ के हिमखंडों के पिघलने की प्रक्रिया में अस्वाभाविक तेजी आई है। रायटर (लंदन) के सौजन्य से 'The Times of India' (22 मार्च, 2002 के नई दिल्ली संस्करण) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, बारह हजार वर्ष पुराना 'लार्सन-बी' (Larsen-B) नामक बहत्तर हजार खरब (7.2 billion) टन के लगभग भारवाला एक अति विशालकाय हिमखंड (Ice-Shelf) अंटार्कटिका प्रायद्वीप के मुख्य भाग से एकाएक अलग होकर इसके पूर्वी तटों पर स्वच्छंद तैरने लगा है। मेरीलैंड विश्वविद्यालय के हिम विशेषज्ञ, प्रो. टेड स्कांबोस (Prof. Ted Scambos) के अनुसार, सन् 1940 के दशकों से अंटार्कटिका के तापमान में हुई 2.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के कारण 31 जनवरी, 2002 से प्रारंभ हुई 35 दिनों के अनवरत् विखंडन की प्रक्रिया से पूर्व ही यह स्वयं पिघलकर अपने मूल आकार का मात्र 40 प्रतिशत अर्थात् 1250 वर्गमील का ही रह गया था। इस तरह सी-17 नामक 58 वर्गमील आयताकारवाले एक अन्य हिमखंड का भी अंटार्कटिका के पूर्वी छोर से अलग होकर समुद्र में तैरने की घटना की सूचना फरवरी 2002 के प्रथम सप्ताह में ही मिली है। हिम विशेषज्ञ निकट भविष्य में इस प्रकार के कई Ice-Shelves के पूर्णतः पिघलने या हिम विखंडनों की आशंकाओं को स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं। प्रो. स्कांबोस के अनुसार- "The next Shelf to the south, the Larsen-C, is very near to its stability limit & may start to recede in coming decades if the warning trends continues. Giant Ross Ice shelf will also have the same destiney. " कोलोरोडो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्क मेअर (Mark Meier) की यह मान्यता है कि ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभावों से पिछले 5000 वर्षों की तुलना में हिम के पिघलने में आई इस तेजी के फलस्वरूप अगले 100 वर्षों में महासागरों का जल स्तर 11 से लेकर 88 सेंटीमीटर के उछाल को भी पार कर सकता है। इस प्रकार पर्यावरणीय असंतुलनों के द्विगुणित प्रभावों के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों में जमे उन्नीस क्वाड्रलियन (19 x 10 24) टनों के लगभग हिमखंडों (Ice Caps या Ice bergs) के पिघलने की दशा में समुद्र का जल स्तर 300 फीट की नई ऊँचाई को लाँघ सकता है, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र तल के बराबर या कम ऊँचाईवाले भू-भागों के संपूर्णतः जलमग्न होने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है। इस तरह अकाल, महामारी, चक्रवाती बाढ़, भूकंप व हिमों के पिघलने जैसे विविध कारकों द्वारा घटनेवाली अपेक्षाकृत सीमित तथा आंशिक त्रासदियों को लघु-प्रलय या फिर Routine Disaster के प्रतीकात्मक नाम से चिह्नित किया जा सकता है।

उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत श्रेणियाँ व पूर्व में बंगाल की ढलान की अपने अद्भुत भौगोलिक बनावटों व भूमध्य रेखा के उत्तर में 8°-4' से लेकर 37°-6' उत्तरी अक्षांश (Latitude) में स्थित होने के कारण भारतीय उपमहाद्वीप हिम, जलप्लावन तथा वृष्टि जैसे नित्य-प्रलय की विभीषिकाओं से विश्व के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित रहा है। पुराणों में भारतवर्ष के विषय में यह कहा गया है कि यहाँ सभी कालों में लोग निर्बाध रूप से बसे रहते हैं (यदिदं भारत वर्ष यस्मिन्स्वायंभुवादयः, चतुर्दशैते मनवः प्रजासर्गे भवन्त्युत–वायु-45.69 व मत्स्य पुराण-144.1)। यही कारण है कि मानवी सभ्यता के क्रमिक विकास व तात्कालिक भौगोलिक स्थितियों का जितना सजीव व प्रामाणिक चित्रण भारतीय साहित्य में मिलता है, उतना ठोस वृत्तांत अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। गुरु-शिष्य परंपरा की अपनी अनूठी विधा के कारण गाथाओं तथा शास्त्रार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषियों ने उपर्युक्त पाँचों प्रकार के प्रलयों की घटनाओं तथा उनके पूर्व व बाद की स्थितियों के अलावा अति प्राचीन काल में विश्व के विभिन्न अंचलों में अस्तित्व में रहीं देव, दैत्य, दानव, सुर, असुर, यक्ष, गंधर्व, नाग, किन्नर, गरुण, राक्षस, पिशाच आदि मानव-जातियों की वंशावलियों तक को अपनी स्मृतियों में सँजोए रखा था। कालांतर में इन्हीं मनीषीयों के कालदर्शी उत्तराधिकारियों ने भावी पीढ़ियों को इन घटनाओं से परिचित कराए रखने के उद्देश्य से, कुशल आचार्यों के नेतृत्व में दीर्घ विद्वत् सत्रों का आयोजन करके पुराण आदि की रचनाओं द्वारा सभी घटित महत्त्वपूर्ण संदर्भो को लिपिबद्ध भी कराया।

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