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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

संयुक्त शाखा (प्रियव्रत व उत्तानपाद)


इधर भारतवर्ष में शासन कर रहे भरतवंशी विराज प्रजापति (प्रियव्रत शाखा) के उत्तराधिकारी एक-एक करके कमजोर शासक सिद्ध होते गए। रज, अरिज, रजस, शतजिस व विष्वग्ज्योति के पश्चात् प्रियव्रत शाखा में योग्य प्रजापति का एक प्रकार से अकाल सा पड़ गया। इस आसन्न समस्या का प्रतिकार करते हुए प्रियव्रत व उत्तानपाद शाखा के संयुक्त वंशधर यानी नडवला-चाक्षुष के प्रपौत्र रहे 'कीर्तिमान' ने अपने प्रतापी पुत्र ‘कर्दम' को मनुर्भरत के इस यशस्वी भूखंड का प्रजापति घोषित कर दिया। प्रियव्रत व उत्तानपाद शाखा के संयुक्त प्रतिनिधि के रूप में ‘कर्दम' एक सुयोग्य तथा प्रसिद्ध प्रजापति सिद्ध हुए। इनके राज्य का क्षेत्र भी प्रियव्रत व उत्तानपाद शाखा के संयुक्त प्रभाव के कारण पर्शिया से लेकर पूर्वी एशिया के समुद्री-तट तक फैला हुआ था। प्रजापति कर्दम को ऐतिहासिक कीर्ति को स्थापित करनेवाले अनंग तथा कपिल नामक दो पुत्र हुए। अपनी अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति व कुशाग्र बुद्धि के कारण कर्दम पुत्र कपिल भारतीय परंपरा के पहले तत्त्वज्ञानी ऋषि हुए। सांख्य सूत्रों के माध्यम से महामुनि कपिल ने सृष्टि के गूढ़ रहस्यों की वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या करते हुए इसे पच्चीस तत्त्वों पर आधारित बताया। प्रमेय के अपने इस अभिनव रहस्योद्घाटन के कारण विद्वज्जनों में वे सांख्याचार्य के रूप से भी प्रतिष्ठापित हुए। इसी तरह सामयिक परिस्थितियों वश प्रजा द्वारा कर्दम-पुत्र 'अनंग' को विशेषाधिकार से संपन्न पद पर अभिषिक्त करके विश्व में राजा की नूतन परिपाटी विकसित की गई।

राजा-पद का सृजन


व्यापक राज्य क्षेत्र तथा निरंतर बढ़ रही प्रजा के कारण उत्पन्न समस्याओं एवं प्रियव्रत शाखा के प्रजापतियों के पतन से अप्रभावी हो चुकी व्यवस्था से चिंतित ऋषियों की पीठ ने विकल्पात्मक प्रबंध के लिए गंभीर मंत्रणाएँ कीं। तदनुसार ब्रह्मा द्वारा प्रतिपादित त्रिवर्ग-शास्त्र (संविधान) के अनुरूप सैनिक तथा दंडविधान के उच्च अधिकार से संपन्न एक पद का सृजन किया गया। इस प्रकार प्रजा के रंजन के लिए सृजित किए गए इस पद को 'राजा' की संज्ञा दी गई। प्राच्य का यह त्रिवर्ग शास्त्र रूसो (Rousseau) द्वारा प्रतिपादित पाश्चात्य के 'Social Contract' नामक सिद्धांत की पूर्व पीठिका ही रही थी। आचार्यों की सर्वोच्च पीठ ने स्वायंभुव आदि मनुओं तथा प्रजापतियों की गौरवशाली परंपरा में विश्वास व्यक्त करते हुए, कर्दम के पुत्र अनंग को ही प्रजापति के स्थान पर राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार लागू हुए संसार के पहले लिखित संविधान (त्रिवर्ग-शास्त्र) के अंतर्गत भरतवंशी अनंग मानवी सभ्यता के प्रथम राजा बने। राज्य की सामरिक आवश्यकताओं के अनुरूप अनंग ने नियमित सैनिकों की व्यवस्था भी की। राज्य व जन-सुरक्षा हेतु प्रजा में से नियमित सैनिक बने लोगों को तदनुसार 'क्षत्र का रक्षक' अथवा क्षत्रिय' के नाम से पुकारा जाने लगा। कुशल प्रशासक के रूप में राजा अनंग आचार्यों की कसौटी पर खरे उतरे। त्रिवर्ग-शास्त्र के अनुरूप शासन का उचित प्रबंध करते हुए उन्होंने अपने राज्य में शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित की।

अनंग के उपरांत उसका पुत्र अतिबल राजा घोषित हुआ। अतिबल राजा होने के साथ-साथ एक पराक्रमी योद्धा भी रहा। अपने राज्य के सुदूर पूर्व में पनप रहे दस्युओं के उन्मूलन के लिए अतिबल ने प्रचंड सैनिक अभियान का सफल संचालन किया। अपने विस्तृत राज्य के समुचित प्रबंधन के लिए उसने अपनी राजधानी को माल्यवान प्रदेश (संभवतः तिब्बत व मंगोलिया की सीमा पर स्थित किसी सुरक्षित स्थान) में स्थापित किया। यहीं पर 'सनीला' नामक एक स्त्री पर वह आसक्त हो गया। सनीला से उसे वेन नामक एक पुत्र हुआ। मंगोल व चीनी साहित्य में ऊंग, बलाल व वेंग का संदर्भ संभवतः अनंग, अतिबल व वेन के लिए ही प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। अतिबल के उत्तराधिकारी के रूप में 'वेन' राजगद्दी पर बैठा। बचपन से ही उदंड रहा 'वेन' अपनी दुष्वृत्तियों के कारण शीघ्र ही एक आततायी राजा के रूप में कुख्यात हुआ। इसके कुशासन व बर्बरता से पीड़ित होकर प्रजा ने, आचार्यों तथा राजपुरुषों की मंत्रणा पर एक दिन मौका पाकर इसकी हत्या कर दी।

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