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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

पृथु-वैन्य


वेन के उपरांत ऋषियों ने राजकुल की मर्यादा को बनाए रखते हुए उसकी भारतीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र पृथु के राज्याभिषेक का निर्णय लिया। पृथु को राज्य-भार सौंपने से पूर्व आग्न्यधान द्वारा जनता के प्रति राजा के दायित्वों का पूर्ण निष्ठा से पालन करने की शपथ भी सबके सामने ऋषियों ने उसे दिलवाई थी (महाभारत शांतिपर्व-59.103 से 111)। इस प्रकार राज्य का शासन-भार सँभालने से पूर्व लिये जानेवाले शपथ की मूल परिपाटी का प्रचलन पृथु के काल से ही प्रारंभ हुआ था और स्वरूप परिवर्तन के साथ इस प्रक्रिया का पालन आज भी किया जाता है। प्रजापालक पृथु ने जनता के लिए आवश्यक अन्न के प्रबंधन के लिए जंगलों को साफ करवाया तथा ऊबड़-खाबड़ धरती को समतल करवाकर कृषि योग्य बनवाया था। पृथु के ही समय ऋषि ‘पराशर्य' ने सर्वप्रथम हल का प्रयोग कर बीजारोपड़ (जोत) द्वारा खेती की आधुनिक विधा का विकास किया था। पुराणों में कहा गया है कि वेन पुत्र पृथु ने धरती से अन्न ऐसे उत्पन्न किया था जैसे गाय से दूध दुहा जाता है और ऐसा करने के कारण वह बहुत प्रसिद्ध भी हुआ (वायु पुराण-63.19)। किंचित इसी आशय को समझाने के लिए ही भारत के पौराणिक चित्रों में धरती को 'गौ' के रूप में भी चित्रित किया जाता रहा है। पृथु के राज में सब प्रकार के अन्न की उपज हुई थी (तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानी दश सप्त च-महाभारत 12-59-124)। इस तरह बसु धन व अन्न को धारण करने के कारण धरती को बसुधा या बसुंधरा के विशेषण से भी अलंकृत किया जाने लगा (बसुधारयते यस्माद्वसुधातेन चोच्यते-वायु पुराण 63/1)। किंचित् भूमि विकास संबंधी पृथु के इन्हीं कार्यक्रमों के कारण ही कालांतर में धरती को पृथु की पुत्री यानी पृथ्वी कहा जाने लगा होगा (दुहितृत्वं गता यस्मात्पृथोर्थर्मवतो महीतदाऽनुरागयोगाच्च पृथिवी विश्रुता बुधैः-मत्स्य पुराण-10/35)।

पृथु-वैन्य को अंतर्थि व पालित दो पुत्र हुए। अंतर्थि को शिखंडिनी नामक स्त्री से हविर्धान नाम का एक पुत्र हुआ। हविर्धान को घिषणा नामक स्त्री से प्राचीनवर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज व अग्नि नामधारी छह पुत्र हुए। हविर्धान का उत्तराधिकारी प्राचीनवर्हि हुआ और इसको सवर्णा नामक स्त्री से प्रचेता नामक पुत्र हुआ। तदंतर हुए कुल दस प्रचेताओं ने पृथु-वैन्य द्वारा स्थापित राज्य का विस्तार करते हुए पश्चिम में कश्यप सागर तक अपनी सीमाओं का विस्तार किया। महान् पराक्रमी रहे अंतिम प्रचेता को 'मारिषा' नामक स्त्री से दक्ष नाम का पुत्र हुआ (दक्षः प्राचेतसो यथा-महाभारत शांति पर्व 23.51)। प्रतापी दक्ष को कुल तेरह कन्याएँ हुईं, जिन्हें इसने मरीचि-कश्यप को सौंपी। चूँकि प्राचेतस दक्ष को कोई पुत्र नहीं हुआ, अतः स्वायंभुव मनु के काल से चली आ रही प्रियव्रत व उत्तानपाद की अविच्छिन्न राजवंश-परंपरा का मात्र कन्याओं के जनक रहे इस दक्ष नामधारी नृप के पश्चात् पटाक्षेप हो गया। तदुपरांत नृप-विहीन राज्य व्यवस्था के संचालन के लिए शंकर के दत्तक पुत्र रहे गणेश के मार्ग-दर्शन में भरतखंड में गण-व्यवस्था स्थापित की गई। गण-राज्य की इस व्यवस्था के तहत परिवार प्रमुख, ग्राम-सभा, समिति आदि के क्रम से निश्चित अवधि के लिए गठित आमंत्रण (मंत्रिमंडल) द्वारा चयनित व्यक्ति ही 'गणपति' के रूप में शासन परिचालन के दायित्वों का निर्वहण करता रहा था। चूँकि गणपतियों द्वारा संचालित इन आदर्श राज्य व्यवस्थाओं में प्रजा (गण) साधन-संपन्न व विघ्न आदि से रहित होकर सुखमय जीवनचर्या का यापन करती उन्हीं स्वर्णिम क्षणों की स्मृति में आज भी गणपति-विधि के प्रस्तोता रहे गणेश के पूजन श्लोकों में 'ॐ गणनांत्वा गणपति गुंग हवामहे प्रियणांत्वा प्रियपति गुंग हवामहे निधिनांचा निधिपति गुंग हवामहे' या फिर 'ऊँ नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्य प्रदायिने दृष्टारिष्ट विनाशाय पराय परमात्मने' आदि विशेषणों का आह्वान सुनने को मिलता है। इस तरह कश्यप-गोत्रीय श्राद्धदेव (वैवस्वत मनु) के सिंधु क्षेत्र में पदार्पण करने से पूर्व तक भरतखंड अर्थात् भारतवर्ष में भरतवंशियों अर्थात् भारतीयों (वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः) की गण-व्यवस्थाएँ ही विद्यमान रही थीं।

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