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द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


प्रस्फुटन का सारांश


खगोलीय वृत्तियों के अनुसार निश्चित अंतरालों (प्रति 43,20,000 वर्षों के चक्र) पर घटित होनेवाले 'युगांतर प्रलयों' के कारण संपूर्ण पृथ्वी की जैविक सृष्टियाँ आद्योपांत नष्ट हो जाया करती हैं। प्रकारांतर में अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण होने पर जलज, जेरज, अंडज व स्वेदज के क्रम से पृथ्वी पर प्राणियों का अस्तित्व पुनः उभरता है। प्रति चक्रों के आदि में घटित इन प्रलयों के पश्चात् जैविक प्रजनन के उपयुक्त वातावरण को बनने में लगभग आधे से अधिक का काल अर्थात् साढ़े इक्कीस लाख वर्ष से भी कुछ अधिक का समय लग जाता है। जैविक-प्रजनन के इन कालों में उद्भिज्जों, वनस्पतियों, कीट-पतंगों व पशु-पक्षियों के क्रम से ही मानवी उत्पत्ति संभव हो पाती है। भारतीय शास्त्रों में वर्णित संदर्भो एवं अब तक के किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों व पाए गए मानव जीवाश्मों के काल-परीक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि पृथ्वी पर मानवों की सर्वप्रथम 43,20,000 वर्ष की अवधि) के हिसाब से मानुषी-उत्पत्ति विषयक इस कालावधि को लगभग छह बराबर हिस्सों में बाँटा जा सकता है, अतः इस आधार पर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि प्रथम मानवी-सृष्टि से अब तक कुल छह युगांतर-प्रलयों की स्वाभाविक घटनाएँ घट चुकी होंगी। अतएव इन प्राकृतिक त्रासदियों के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर अब तक कुल छह बार मानवी-सृष्टि का अन्य जीवों समेत संपूर्ण विनाश भी हुआ होगा। इस तथ्य के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक मानवों की वर्तमान शृंखला को पृथ्वी पर अब तक हुई मानवी-सृष्टि के सातवें अंश के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। किंचित् मानवी-सृष्टि के इसी सातवें क्रम को रेखांकित करने के लिए भारतीय शास्त्रों में आधुनिक मानव जाति के प्रथम पुरुष या आदिमानव को कमलवत् पृथ्वी से उत्पन्न सातवें ब्रह्मा (यदिदं सप्तं जन्म पद्यजं ब्राह्मणो-महाभारत, शांतिपर्व-358/49) के रूप में उद्बोधित किया गया है। अर्थ-अनर्थ की तमाम संभावनाओं के साथ पाश्चात्य मानवशास्त्री (Anthropologist) भी आधुनिक मानवों अर्थात् होमोसैपियन (Homo-sapiens) को कमोबेश पिथेकांथ्रोपस, सिनांथ्रोपस, इयानथ्रोपस, नियंडथैलियन, पेलेस्टाइन व रोडेशियन के क्रम से सातवें स्थान पर ही रखते हैं। संभवतः मानवों की भाँति उद्भिज्जों, वनस्पतियों (पेड़-पौधों), कीट-पंतगों व पशु-पक्षियों की वर्तमान शृंखलाएँ भी अपनी समकालिक उत्पत्ति से सातवें क्रम पर ही रही हों। बाइबिल (जेनेसिस) का यह उल्लेख कि 'By the seventh day God had finished the work he had been doing' 7T कुरआन-ए-मजीद (सूरा-56) के तफसीर में उल्लिखित 'मिंबर के आखिरी सातवें दर्जे' का संदर्भ कुछ ऐसा ही संकेत करता है।

खगोलीय काल परिभाषाओं के ही अनुरूप मानवी अस्तित्वों के संबंध में भी भारतीय शास्त्र कुल चौदह मन्वंतरों का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए प्रति मन्वंतरों की अवधियों को मानवी-आयु परिमाण के हिसाब से 24,500 वर्षों का ही नियत करते हैं (वायु पुराण 32/31-32)। इस प्रकार प्रति खगोलीय युगांतों (43,20,000 वर्षों) में मानवों के बने रहने की कुल नियमित अवधि चौदह मन्वंतरों अर्थात् 14 x 24500 = 3,43,000 वर्षों की ही निर्दिष्ट होती है। भारतीय मनीषियों की व्यापक अंतः दृष्टियों के प्रभाववश प्रथम मानवी-सृष्टि से घटित पिछले छह मानवी चक्रों की आधिदैविक शक्तियों (देवताओं) के अतिरिक्त इनके आदि-पुरुषों (ब्रह्मा), सप्तऋषियों (विज्ञ पुरुषों), मनुओं (समाज सुधारकों) व गिने-चुने प्रजापतियों (राजाओं) के विषय में मोटे तौर पर प्रकाश डालने के अलावा भारतीय पुराणों में अन्य किसी प्रकार के विस्तृत वृत्तांतों का सहजता से उल्लेख नहीं हो पाया है; किंतु सातवें ब्रह्मा यानी वर्तमान कालखंड के आदिपुरुष तथा उनसे प्रसूत वंशजों से विकसित हुई मानवी-सभ्यता का क्रमिक विवरण भारतीय शास्त्रों में व्यवस्थित रूप से मिल जाता है। चूंकि खगोलीय कारणों से प्रति तेरह हजार वर्षों के क्रमिक अंतरालों पर घटनेवाली नित्य-प्रलयों (हिम तथा वृष्टि युगों) की विभीषिकाओं के परिणामस्वरूप विश्व के अधिकांश अंचल जैविक-सृष्टि विहीन हो जाया करते हैं (इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका-खंड 18), अतः अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण इन आपदाओं से अपेक्षाकृत अछूते से रहे भारतवर्ष (वायु पुराण-45/69) के विज्ञजनों द्वारा उल्लेखित सारगर्भित तथ्यों को ही मानवी अस्तित्व के सम्यक् दिग्दर्शन के लिए सर्वथा प्रामाणिक माना जा सकता है। किंचित् इन्हीं कारणों से पिछले हिम/वृष्टि युग के पश्चात् शनैः-शनैः अस्तित्व में आई सभ्यताओं के गोद से निकले विद्वानों को भारतीय वाङ्मय में वर्णित लाखों ही नहीं, अपितु पाँच से दस हजार वर्ष पूर्व मात्र के उन्नत मानवीय सभ्यताओं के दृष्टांत भी परी-कथाओं जैसे कपोल-कल्पित ही प्रतीत होते हैं (The earliest of Indian genealogies, like the most ancient chronicies of other peoples are legendry.-Ref.-Cambridge History of India-Vol. I, page-304), जबकि वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनेकानेक साक्ष्य (Forty three thousand years old Hematite Ore Mines apparently used for cosmetics materials found in Middle-East i.e. in Mesopotamia, forty seven thousand years old Copper Mines found in Rhodesia, 75,000 years old sign of using fire and ten lacs years old Chopping Tools found in Vollonet Caves of France are some examples in context to less than ten percent of antiquity which has come down to us because of their destruction in various catastrophe. Ref.-Mysteries from Forgotten Worlds by Charles Berlitz) तथा विश्व के विभिन्न अंचलों में प्रचलित पुरानी लोक-गाथाओं के अस्पुट संदर्भ निर्विवादित रूप से भारतीय आख्यानों में उल्लेखित पूर्वजों की वृत्तियों या फिर उनके अति उन्नतशील जीवन पद्धतियों की ही पुष्टि करते हैं। उपर्युक्त दृष्टांतों के परिप्रेक्ष्य में मानवी-इतिहास की रूपरेखा को सम्यक् आकार देने के लिए ही पिछले अध्यायों में भारतीय संदर्भो का विशेष आश्रय लिया गया है।

गत युगांतर प्रलय के उपरांत पृथ्वी पर वायुमंडल, जल व भूमि जैसे जैविक आधार-स्तंभों के निर्माण हो जाने पर अंतरिक्ष से प्रवाहित होनेवाली जीवनदायिनी शक्तियों (जैमिनीय ग्रंथों में जिसे 'सुपर्ण' के रूप में चिह्नित किया गया है) के प्रभाव से जैविक-सृष्टि का क्रम पुनः प्रारंभ हुआ था। प्रकृति की यौगिक क्रियाओं से निर्मित हुए ‘रासायनिक अम्लों' (भारतीय शास्त्रों में जिन्हें 'सोम' तथा वैज्ञानिक भाषा में जिन्हें 'Nucleal Acid' कहा गया है) व 'अंतरिक्ष-तरंगों' (भारतीय शास्त्रों में जिसे 'रोहिणी' व वैज्ञानिक भाषा में 'Cosmic Rays' के रूप में चिह्नित किया गया है) के संघात से जिन 'जैविक-तत्त्वों' (भारतीय शास्त्रों में जिन्हें 'वीरुद' व वैज्ञानिक भाषा में जिन्हें 'Polymer' के रूप में उद्बोधित किया गया है) की उत्पत्ति हुई, कालांतर में परिस्थिति विशेष के अनुरूप भूमि, जल और वायु का संसर्ग पाकर वे ही उद्भिज्जों, वनस्पतियों व फिर पेड़-पौधों के विभिन्न स्वरूपों में पृथ्वी पर विकसित होते गए। मैत्रायणी संहिता (1/6/9/2) में जैविक-प्रस्फुटन की इस घटना की व्याख्या करते हुए यह संकेत दिया गया है कि लोमरहित पृथ्वी पर देवों यानी सुपर्णों ने सोम व रोहिणी के संयोग से वीरुदों को प्रत्यारोपित किया था (ऋक्षा ह वा इयमग्र आसीत तस्यां देवा सोम रोहिण्यां वीरुधोऽरोहयन्)। वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि अणुओं का द्रव्यमान तो उनमें उपस्थित न्यूट्रॉन की संख्या पर निर्भर होता है, जबकि उनके रासायनिक गुणों का निर्धारण इनमें उपस्थित इलेक्ट्रॉन की संख्याओं पर आधारित होता है। इलेक्ट्रॉन की संख्या कॉस्मिक किरणों के प्रभावों से परिवर्तित होती रहती है। इस तरह प्राकृतिक संघातों के कारण हाइड्रोजन का परावर्तन नाइट्रोजन में व फिर यही नाइट्रोजन कार्बन में परिवर्तित हो जाती है। विज्ञान की भाषा में प्राकृतिक उपादानों के जैविक रूपांतरण की इस प्रक्रिया को H2-N14-C14-C12 के सांकेतिक अर्थों में व्यक्त किया जा सकता है। पृथ्वी पर वनस्पति आदि जैविक-सृष्टियों के निर्माण हो जाने के कुछ काल उपरांत अति विशेष परिस्थितियों में इन्हीं संघटकों के प्रभावों से धरती के उथले व खुरदरे स्तरों पर नाना प्रकार के छोटे-बड़े अंडों का निर्माण होना प्रारंभ हो गया। प्राकृतिक अंशदानों के गुण-विशेष व स्थान आदि के जलवायविक तथा भौगोलिक प्रभावों से कालांतर में इन्हीं अंडों के विघटन से विविध योनियों के जीव-जंतुओं का इस धरती पर प्राकट्य हुआ था। इस प्रकार विश्व के विभिन्न अंचलों में जलवायविक परिणामों के आधार पर नाना प्रकार के कीट-पतंगों व पशु-पक्षियों का अस्तित्व उभरकर सामने आया। सन् 1856 में प्रकाशित 'Origin of Species' नामक अपने ग्रंथ के माध्यम से चार्ल्स डार्विन ने जीवन-संघर्ष (Struggle for existance) व योग्यतम अतिजीविता (Survival of Fittest) के आधार पर अमीबा (Amoeba) से मानव के क्रमिक प्रजनन के जिस विकासवादी सिद्धांत (Evolutionary Theory) को प्रतिपादित किया था, आधुनिक विज्ञान स्वयं ही उससे सहमत होता प्रतीत नहीं होता। प्रसिद्ध प्राणिशास्त्री डॉ. एगासिज (Dr. Agassiz) जहाँ अपनी चर्चित पुस्तक 'Principles of Zoology' (Page-205) के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि 'समानता के सभी लक्षणों के उपरांत भी भिन्न-भिन्न प्रकार के जंतुओं में, जो भिन्न-भिन्न जातियाँ उत्पन्न हुई हैं, उनमें किसी प्रकार से पूर्वज या वंशजों का संबंध सिद्ध नहीं हो पाता है।' (There is mainfest progress in the succession of being on the surface of this earth. This progress consists in an increasing similarity of the living fauna and among the vertebrates especially in their increasing resembelance to man...but this connection is not the consequence of the direct lineage between the fauna of different ages. There is nothing like parental descent commecting them), वही इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (खंड-तीन) में भी इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए यह उल्लेखित किया गया है कि 'यह दावा नहीं किया जा सकता है कि समानता के आधार पर भी एक प्रकार के जंतुओं का दूसरे प्रकार के जंतुओं से कोई संबंध रहा z (It cannot be claimed that there is any consensus as to relationship of the main groups of living things to each other.)। भारतीय शास्त्रों में प्राणियों के विविध स्वरूपों की इन कारक-गुत्थियों को सुलझाने के लिए ही 'योनेः शरीरम्' अर्थात् योनि के अनुरूप ही शरीर (ब्रह्मसूत्र 3-12-27) तथा 'जातयन्तरपरिणामः प्रकृत्यापुरात्' अर्थात् एक योनि से दूसरी योनि में परिवर्तन प्रकृति की पूरक प्रक्रिया द्वारा ही हो पाता है (पातंजल योग सूत्र) के दृष्टांतों को प्रस्तुत किया गया है। उपर्युक्त सूत्र के अनुसार योनि (नर व मादा जननेंद्रियों) के अनुरूप ही शरीर का निर्माण होता है अर्थात् योनियोत्तर प्राणियों (द्विजातियों) के आपसी संयोग से प्रजनन की प्रक्रिया फलित नहीं हो पाती, जबकि 'प्रकृत्यापुरात्' अर्थात् प्रकृति की व्यवस्थानुरूप पुनर्जन्म होने पर जीव पूर्व संचित कर्मों के गुण-दोष के आधार पर योनि परिवर्तन करता है। जैविक समीपता के आधार पर यदि योनियोत्तर प्राणियों के संयोग से कहीं-कहीं संतानोत्पत्ति के प्रयास सफल भी हो जाते हैं, तो ऐसे वर्ण-संकरों से संतानें उत्पन्न नहीं हो पातीं। इस संदर्भ में गधे व घोड़े के संयोग से हुए खच्चर या फिर गीदड़ व कुत्तों के संयोग से उत्पन्न हुई मिश्रित प्रजातियों के उदाहरणों को प्रमाण के रूप में परखा जा सकता है। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (खंड-आठ) में उपर्युक्त तथ्यों के अनुरूप यह उल्लेखित किया गया है Pos Perhaps bi-parental reproduction can be put in different group of species, within each of which crossing is possible but between which crossing is impossible.' विकासवाद की भारतीय धारणाओं यानी प्रकृत्यापुरात् का सिद्धांत अगले जन्म में फलित होता है और इसमें वृक्ष जैसे स्थावर जीवों का मानवी रूपांतरण व मानव जैसे सर्वश्रेष्ट योनि के स्थावर रूपांतरण की संभावनाएँ कर्मों के अनुरूप घटती रहती हैं। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राणियों की वंशावलियों में योनि परिवर्तन की सार्थक घटनाएँ असंभव हैं, अतः जैविक-प्रस्फुटन के आरंभिक काल में आकार ले चुकी आद्य प्राणियों की उत्तरजीवी वंशावलियाँ ही अपने मूल स्वरूपों में आज भी हमें दृष्टिगोचर हो रही हैं।

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