भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
|
6 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
अपने पूर्ववर्ती जीवों की भाँति प्राकृतिक-प्रजनन के अंतिम चरण में मानवों की
भी उत्पत्ति धरती की खुरदरी परतों में निर्मित हुए अति विशेष प्रकार के अंडे
से ही हुई थी। मानुषी-आयु परिणाम के अनुसार इन अंडों से निकले मानवों की
कद-काठी अठारह से लेकर बीस वर्ष के स्वस्थ युवाओं की भाँति रही थी। कदाचित्
अंडों के निर्माण से लेकर मानवों को अपने इस तथाकथित स्वरूप में उभरने में भी
कुल इतना ही समय लगा होगा। अंडे से आदि-मानव की उत्पत्ति की व्याख्या करते
हुए 'मनुस्मृति' (1/11) का ग्रंथकार यह स्पष्ट करता है कि प्रकृति द्वारा
आरोपित वीज ही अल्प काल में सूर्य के समान चमकीले अंडे के रूप में परिवर्तित
हो गया और फिर उसी अंडे से सब लोगों के पितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए थे
(तद्ण्डमभवद्यैमं सहस्रांशुसमप्रभम् तस्मिंजज्ञेस्वयं ब्रह्मा सर्वलोक
पितामहः) । महाभारत (शांति पर्व-188/ 37) के अनुसार ब्रह्मा के रूप में
प्रादुर्भूत इस प्रथम पुरुष की देह-आकृति मानवों की ही भाँति पंच-भौतिक
कायावाली ही थी। इसी तरह मानवी-प्रजनन की इस अभूतपूर्व घटना से संबंधित स्थान
की ओर संकेत करते हुए ऋग्वेद (1-169-9) का सूक्त पृथ्वी के इस मानवी गर्भ को
ध्रुव से दक्षिण के किसी सुरक्षित क्षेत्र (संभवतः हिमालय के आस-पास के
इलाके) में ही आकार लेने को निर्दिष्ट करता है (युक्ता मातासीद् धुरि
दक्षिणायाः अतिष्ठद्गर्भो बृजनीष्णन्तः)। हिमालयी तराई में स्थित ब्रह्मसर
(आधुनिक मानसरोवर) व इससे प्रसूत हुई नदी का पुंलिंगवाचक 'ब्रह्मपुत्र'
नामकरण एवं ब्रह्म प्रदेश (बर्मा या आधुनिक म्यांमार) आदि की भौगोलिक
स्थितियाँ व ब्रह्मा के प्रतीकात्मक ही इनके संबोधन तथा यहाँ से ही निकली
'सरस्वती' नामक एक अन्य नदी का ब्रह्मा से संबंध इस ‘आदि पुरुष' की उत्पत्ति
के वेद-वर्णित क्षेत्र को ही स्पष्टतः रेखांकित करते प्रतीत होते हैं। इसी के
साथ ऋग्वेद के 'अमीमेद् वत्सो अनुगामपश्यद्' (अर्थात् पृथ्वी में गर्भ ठहरने
के पश्चात् वर्षा की ही भाँति बरसनेवाली जीवात्माएँ भी अवतरित हुईं) सूक्त का
भाव यही इंगित करता है कि इस ज्ञात प्रथम-पुरुष (यानी ब्रह्मा) के साथ-साथ या
फिर उसके उपरांत धरती के उसी या अन्य भागों में भी कुछ इसी प्रकार के अयोनिज
मानव उत्पन्न हुए होंगे। किंतु शास्त्रों में आदि-पुरुष के रूप में मात्र
ब्रह्मा को स्वीकारा जाना, यही आभास देता है कि प्राकृतिक दुष्प्रभावों के
कारण ब्रह्मा के साथ जनमे अन्य अमैथुनीय मानवों का अस्तित्व अधिक दिनों तक
नहीं रह पाया होगा या फिर वे सभी हिंसक वन्य-जंतुओं के शिकार हो गए होंगे।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार चूँकि पुराकल्प की श्रेष्ट आत्माएँ ही इन
अमैथुनीय मानव देहों में अवतरित हुई थीं, अतः प्रथम पुरुष के रूप में जीवित
रह पाया मानवी-इतिहास का यह ज्ञात आदि पुरुष (ब्रह्मा) जन्मजात ही उच्च
संस्कारों से परिपूर्ण भी रहा था। इस तरह दैवी संस्कारों से आप्त धरती का यह
सातवाँ ब्रह्मा अपने जन्म से ही प्रतिपल घटित हो रहे अनुभवों के आधार पर
मानवी-ज्ञानों से प्रदीप्त होता हुआ भावी पीढ़ियों की जीवनोपयोगी विधाओं व
पदार्थों के अन्वेषणों तथा संकलनों में निमग्न रहने लगा।
मानवी-इतिहास के इस सातवें पड़ाव के प्रथम-पुरुष के लिए किए गए 'ब्रह्मा' के
भारतीय उद्बोधन के ही अनुरूप पाश्चात्य अवधारणाओं में आदि-पुरुष को 'आदम' या
'एडम' के नाम से चिह्नित किया गया है। आधुनिक कालखंड की भाषाई अथवा उच्चारणगत
विविधताओं के आधार पर इन संबोधनों को प्रायः एक दूसरे का पर्यायवाची ही
स्वीकार कर लिया जाता है, जबकि ऐतिहासिक आलेखों के अनुसार इनके आपसी
अस्तित्वों में लाखों वर्षों का स्वाभाविक अंतर विद्यमान रहा था। भारतीय
मान्यताओं में जहाँ धरती के गर्भ से जनमे इस प्रथम मानव या ब्रह्मा के काल को
वैज्ञानिक धारणाओं के अनुरूप लाखों वर्षों पूर्व का आँका गया है, वहीं
ज्यूडो/क्रिश्चियन या फिर इसलामिक अवधारणाएँ मानवी-सृष्टि का सोपान एडम या
आदम से ही निर्धारित करती हैं। बाइबिल (एंजिल) के अनुसार एडम से नोह व फिर
नोह से अब्राहम तक की कुल बाईस पीढ़ियों
(Adam-Seth-EnoshKenan-Mahalalel-Javed-Enoch-Methuselah-Lamech-Noah-ShemArphaxed-Shelah-Eber-Peleg-Reu-Serug-Nahor-Terah-Abraham)
का आपसी अंतर 3563 वर्षों का तथा अब्राहम से ईसा तक का अंतर 1920 वर्षों का
रहा था। इस प्रकार पाश्चात्य परंपराओं के अनुरूप मानुषी-सृष्टि के प्रारंभ का
काल आज (यानी अप्रैल 2001) से लगभग साढ़े सात हजार वर्ष पूर्व का निर्धारित
होता है। इस प्रकार प्रथम पुरुष से संबंधित पूर्व व पश्चिम की धारणाओं में
कालगत विषमताओं के असामान्य भेद स्पष्ट रूप से झलकते हैं। परंपरागत आस्थाओं
से निर्मित हुई इन भ्रांतियों का सम्यक् निराकरण भारतीय शास्त्रों की
विवेचनाओं से ही संभव हो सकता है। भारतीय पुराणों में उल्लेखित संदर्भ यह
स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मा से प्रसूत वंशावलियों में ही लाखों वर्ष के
उपरांत आदित्यों (कश्यप-अदिति की संतानों) का महिमा-मंडित कुल अस्तित्व में
आया था। सुर-प्रदेश (आधुनिक सीरिया) के मूल संस्थापक रहे प्रतिभाशाली
विवस्वान् (सूर्य) इन्हीं द्वादश आदित्यों में से ही रहे थे। प्राकृतिक
कारणों से हुए हिमयुग एवं तत्पश्चात् घटित जलप्लावन की दारुण विभीषिकाओं से
पूर्ण रूपेण विनष्ट हो चुके इस सुर-प्रदेश को पुनः बसाने का कार्य हिमालय के
उच्च स्थलों पर निवास कर रहे विवस्वान (सूर्य) के पुत्र 'यम' (Son of
Vivahvan, the great Yima-Ref.-Yasana, Zend Avesta) द्वारा इस क्षेत्र में
आकर किए गए प्रयासों से ही संभव हो सका था। वायु पुराण (70.8) में 'वैवस्वत
पितृणां च यमं राज्येऽभ्यषेचयत्' का उल्लेख इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करता है।
इस प्रकार नित्य-प्रलयों की मानव विनाशकारी त्रासदियों के भयावह परिदृश्यों
के बाद स्वरूप में आए सूर्य पुत्र यम (जिन्हें पर्शियन जेंद अवेस्ता में
'यिम-ख्शएत' या 'यिमशिद' कहकर चिह्नित किया गया है) के इस राज्य को भारतीय
शास्त्रों में 'मृत्युलोक' के अतिरिक्त विशेषण से भी उल्लेखित किया गया है।
यह संयोग ही है कि भारतीय 'नरक' के पर्यायवाची अरबी शब्द 'दोजख' के नाम से
पुकारा जानेवाला एक शहर आज भी ईरान में मौजूद है। संभवतः यम के महती प्रयासों
से नए सिरे से विकसित हुई पश्चिम एशिया के तात्कालिक परिवेश में इनकी
प्रतिष्ठा प्रथम पुरुष के रूप में ही की गई होगी। चूँकि अरबी में 'आद' का
शाब्दिक आशय 'सूर्य' से ही संबंधित होता है, अतः सूर्यपुत्र रहे यम को यहाँ
की परंपरा में इसी के ही प्रतीकात्मक शब्द 'आदम' से परिभाषित किया जाने लगा
होगा। कालांतर में इसी क्षेत्र विशेष से विकसित हुई यहूदी व ईसाई आस्थाओं में
उच्चारणगत विसंगतियों के कारण ही इसी 'आदम' के लिए 'एडम' का संभावित उद्बोधन
व्यवहृत हुआ होगा। किंचित् यही कारण है कि स्वर्ग सदृश हिमालयी उपत्यका से
पितरों के राज्य को विस्थापित करने निकले यम की भारतीय अवधारणाओं के अनुरूप
यहूदियों व ईसाइयों व तदुपरांत विकसित हुई इसलामिक आस्थाओं में भी यही धारणा
समान रूप से पल्लवित हुई कि 'स्वर्ग या जन्नत से निकाले गए एडम या आदम द्वारा
ही मानवी-सृष्टि का चक्र चलाया गया था। इसलामिक आस्थाओं में इनसानी कौम के
पहले पैगंबर यानी हजरत आदम के बहिश्त से निकाले जाने पर हिंदुस्तान की सरजमीं
में दाखिल होने के एहसास को उपर्युक्त वर्णित तथ्यों की ही एक कड़ी के रूप
में देखा जा सकता है। इस तरह पश्चिमी एशिया के भौगोलिक घटनाक्रमों तथा
सांस्कृतिक संचेतनाओं के नूतन प्रस्फुटन के इन उद्धरणों के परिप्रेक्ष्य में
'एडम' या 'आदम' का पाश्चात्य उद्बोधन निर्विवादित रूप से भारतीय 'ब्रह्मा' के
बजाय 'यम' के ही अधिक सन्निकट प्रतीत होता है। ब्रह्मा के अति पुरातन
अस्तित्व की असंदिग्ध प्रामाणिकता गत अध्यायों में वर्णित वंशावलियों के
विस्तृत संदर्भ से स्वतः ही सिद्ध हो जाती है।
अपने जैसे अन्य अयोनिज-मानव उत्पत्तियों की संभावनाओं व फिर इनके संरक्षण तथा
अतिजीविता से संबंधित उपायों के प्रति स्वाभाविक चिंतनशीलता के कारण
मानवी-सृष्टि का यह दिव्य-पुरुष (ब्रह्मा) भावी पीढ़ियों के जीवनोपयोगी
साधनों के अन्वेषणों एवं तदनुसार निर्मित होनेवाले समाज की सुसंस्कृति के लिए
अपरिहार्य विधाओं के सृजन में साधनारत रहने लगा। पुराकल्प के अपने दैवी
संस्कारों तथा प्रतिपल घटित हो रहे दैहिक व भौतिक अनुभूतियों के आधार पर इसने
वाक् (संकेत)-बोली (अभिव्यक्ति), खाद्य (सुपाच्य)-अखाद्य (कुपाच्य), शौच
(शुद्धि)-अशौच (अशुद्धि), कर्म (स्वीकार्य)-अकर्म (वर्जना) व रहन-सहन की
न्यूनतम मानवी अर्हताओं को आकृति देना प्रारंभ कर दिया। अपने इन्हीं
अर्थपूर्ण उद्यमों में व्यस्त रहे इस काल-पुरुष का संसर्ग कुछ समय उपरांत
रुद्र नामक एक नील-लोहित वर्ण के बलिष्ठ पुरुष से हुआ। तत्पश्चात् ब्रह्मा का
संपर्क उसके जैसे ही चार अमैथुनीय मानवों से हुआ था। ब्रह्मा द्वारा विकसित
की जा रही इन गूढ़ विद्याओं को सीखने तथा प्रारंभिक स्तर पर सहयोग देने के
पश्चात् धीरे-धीरे इनमें सांसारिकता के प्रति विरक्ति का ही भाव पनपने लगा।
इस तरह सनक, सनंद, सनातन व सनत् कुमार के नामों से चिह्नित किए गए ब्रह्मा के
इन चारों शिष्यों ने अंततः अपने को इस प्रायोजित कार्यक्रम से अलग करते हुए
निवृत्ति के स्वाध्यायी मार्ग का अनुसरण किया। इन चारों शिष्यों द्वारा
मानवी-सृष्टि की उज्ज्वल परिकल्पनाओं को ठुकराकर चले जाने से प्रायः उद्विग्न
हो उठे ब्रह्मा का संपर्क कुछ काल पश्चात् जिन सकारात्मक सहयोगियों से हुआ,
उन्हीं के अथक प्रयासों से ब्रह्मा को अपनी सृजनात्मक योजनाओं को फलीभूत करने
का अवसर प्राप्त हुआ था। चूँकि मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु,
भृगु, वसिष्ठ, दक्ष, नारद आदि नामकरणों से चिह्नित किए गए इन अयोनिज-मानवों
तथा ब्रह्मा के मध्य आयु के लंबे अंतरालों के साथ गुरु-शिष्य का भी पवित्र
संबंध रहा था, अतः भारतीय शास्त्रों में इसी आशय के अनुरूप उपर्युक्त सभी
पुरुषगणों को ब्रह्मा के मानस-पुत्रों (अर्थात् मन से स्वीकृत संतान) के रूप
में ही संबोधित किया गया। कालांतर में नारद को छोड़कर ब्रह्मा के अन्य
मानस-पुत्रों का संयोग संतति, अनसूया, स्मृति, भूति, संभूति, क्षमा, ख्याति,
ऊर्जा व स्वाहा नामधारी दिव्य अयोनिजाओं से हुआ। प्रकारांतर ब्रह्मा की
अनुमति से युग्मों में क्रमशः विभाजित हुए इन सभी स्त्री-पुरुषों ने
अपने-अपने आश्रमों को स्थापित करते हुए मानवी विधाओं के सृजन के साथ-साथ
पशु-पक्षियों की प्रजनन क्रियाओं से प्रेरणा लेते हुए रुद्र द्वारा
प्रतिपादित आपसी मैथुन (सहवास) के दृष्टांत द्वारा मानवी-प्रजनन का अभिनव
प्रयोग किया। वस्तुतः ब्रह्मा की दीक्षाओं से ज्ञान-प्रदीप्त हुए इन विज्ञ
शिष्यों तथा इनके सुयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा प्रसूत की गई विधाओं के
फलस्वरूप ही विश्व के समस्त ज्ञान-विज्ञान की परंपराओं का प्रचलन एवं मैथुनीय
प्रजनन की प्रक्रियाओं का प्रारंभ संभव हो पाया था। इस प्रकार ब्रह्मा के
मानसी-संतानों के क्रियाकलापों का अनुशीलन करते हुए धरती के अन्य अमैथुनीय
मानवों ने खाना-पीना, रहना-बोलना इत्यादि सीखने के अलावा मैथुन-प्रजनन के
माध्यम से अपने-अपने वंशों का विस्तार करना भी प्रारंभ कर दिया।
|