भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में मरीचि (संतति), अत्रि (अनुसूया), अंगिरा
(स्मृति), पुलत्स्य (भूति), पुलह (संभूति), वसिष्ठ (ऊर्जा) व भृगु (ख्याति)
ने अपनी सहधर्मिणियों सहित हिमालय से पश्चिमोत्तर के निर्जन, किंतु रमणीय
क्षेत्रों में तथा दक्ष (स्वाहा) व क्रतु (क्षमा) ने हिमालय से दक्षिण स्थित
सरस्वती व दृषवती के कूलों पर अपने-अपने आश्रमों को स्थापित किया था।
जैविक-प्रस्फुटन के उषाकाल में हिमालय से पश्चिमोत्तर के क्षेत्रों में
निर्मित हुए आश्रम इस तथ्य का संकेत करते हैं कि उक्त काल में पृथ्वी का
उत्तरी गोलार्ध सूर्य की दिशा में ही पूर्णतः झुका हुआ रहा होगा। फलतः इस
समूचे क्षेत्र में मानवों को बिना किसी कृत्रिम साधनों के सहजता से जीवनयापन
करने का वातावरण उपलब्ध हो सका होगा। संस्कृत में 'ऋतु' का अर्थ होता
है-'प्राकृतिक' या 'स्वाभाविक' तथा 'अस्' का अर्थ होता है-'होना'। इन्हीं
भाषागत आशयों के अनुरूप प्रकृति की नैसर्गिकता से एकात्मक होकर सत्य की
महत्ता से अभिभूत हुए ब्रह्मवादियों के लिए 'ऋषि' अर्थात् द्रष्टा का
भाव-प्रधान संबोधन (ऋषियों मंत्रद्रष्टारः) प्रयुक्त किया जाने लगा होगा।
तैत्तिरीय अरण्यक में इनकी सारगर्भित व्याख्या 'अजान् ह वै
पृश्नींस्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत तदृषयोऽभवन्
तदृषीणामृषित्वम्' के भावों में की गई है। इस तरह हिमालय से पश्चिमोत्तर की
ओर विस्थापित हुए ब्रह्मा के मानस-पुत्रों को समष्टि रूप से 'सप्तऋषि' तथा
इनके द्वारा प्रसूत हुई अन्वेषणात्मक प्रवृत्तियों के कारण इस समूचे क्षेत्र
को कालांतर में 'ऋषियों की भूमि' कहकर संबोधित किया जाने लगा। महाभारत
(उद्योग पर्व-4/15) में यहाँ के तात्कालिक निवासियों के लिए जहाँ 'ऋषिक'
संज्ञा का उद्बोधन हुआ है, वहीं सप्तऋषियों के मूल निवास के लिए महाभारत
(शांतिपर्व) का संदर्भ सुमेरु पर्वत (काकेशियन रीजन) के आस-पास के क्षेत्रों
को ही इंगित करता है। किंचित् इन्हीं तथ्यों के प्रभाववश पाश्चात्य साहित्यों
में 'सप्तऋषियों' के प्रतीकात्मक 'Seven wise men of the world' का संकेत तथा
ऋषियों की इस भूमि को आधुनिक संदर्भो में 'रसिया' या 'Russian Land' के भाषाई
अपभ्रंशों से चिह्नित किए जाने का दृष्टांत परिलक्षित होता है। इस प्रकार
पश्चिमोत्तर की ओर प्रतिष्ठापित हुए मरीचि व संतति ने अपना आश्रम आधुनिक
काकेशियन रीजन के पूर्वोत्तर में स्थापित किया था। इन्हीं के वंशजों में हुए
‘कश्यप' के प्रतीकात्मक इस अंचल के एक समुद्र का 'कश्यप सागर' (Caspien Sea)
नामकरण इनके आश्रम तथा प्रभाव-क्षेत्र का भौगोलिक प्रमाण प्रस्तुत करता है।
कालांतर में कश्यप तथा उनकी विभिन्न सहधर्मिणियों से हुई संतानों से ही
दैत्य, देव, दानव, यक्ष, गंधर्व, राक्षस आदि प्राचीन जातियाँ एवं इनके
वंशधरों से आर्य, सेमेटिक, फोनेशियन, सुमेरियन, इंका, मयांस आदि परवर्ती
जातियाँ अस्तित्व में आई थीं। इसी तरह अत्रि व अनसूया के कुछ वंशधरों द्वारा
भूमध्यसागरीय अंचल में जिस संस्कृति का विकास हुआ उसी के गर्भ से यूरोप की
एटुस्कन सभ्यता प्रस्फुटित हुई थी। अंगिरा-स्मृति के वंशजों द्वारा विकसित की
गई संस्कृति के प्रभाव से ग्रीक की आर्गनोरिस जातियाँ तथा पुलह-संभूति के
वंशजों द्वारा पल्लवित विचारधारा से ही युरोप की पिलेसगियंस जातियों का
स्वरूप उभर आया था। इसी प्रकार दैत्य सम्राट् बाण के आग्रह पर पुलत्स्य-भूति
के वंशजों का आधुनिक जॉर्डन के समीप विस्थापित होने का प्रमाण भारतीय ग्रंथों
में सहजता से मिल जाता है। इन्हीं के वंशजों में हुए 'विश्रवा' ने अपना आश्रम
सुदूर पूर्व के 'अस्त्रालय' नामक एक द्वीप (संभवतः ऑस्ट्रेलिया) में स्थापित
किया था और यहीं पर गंधर्वबाला व दैत्य सेनापति की दुहिताओं से हुए इनके
पुत्रों (कुबेर व रावणादि) द्वारा क्रमशः यक्ष तथा राक्षस जातियों का
प्राकट्य हुआ था। समुद्री जातियों के रूप में चर्चित रहे पौलत्स्यों
(राक्षसों) के परवर्ती संस्करणों को ही मिस्र के इतिहास में 'पुलेसाती' तथा
रोमनों में 'पुलस्तिन' कहकर चिह्नित किया गया था। आधुनिक संदर्भ में इसी
समुद्री जाति को संपूर्ण विश्व 'पेलेस्टीनियन' कहकर संबोधित करता है।
वसिष्ठ-ऊर्जा का आश्रम मेसोपोटामिया के उत्तरी हिस्से में स्थित रहा था।
कालांतर में इनके वंशजों ने अपने प्रभाव का विस्तार लोहित्य सागर (Red sea)
के पूर्वी अंचलों तक कर लिया था। मिथ्र यानी मित्र या सूर्य की उपासक रही
पश्चिमी एशिया की मग या मेडिस तथा अरब की मूक व मिहिर जातियाँ प्रकारांतर से
इन्हीं वसिष्ठ-गोत्रियों की ही वंशधर रही थीं। ब्रह्मा के मानस-पुत्र रहे मूल
वसिष्ठ के अतिरिक्त विवस्वान (सूर्य) व वरुण के दुविधाजनक अंश के प्रभाववश
अप्सरा उर्वशी के गर्भ से भारत स्थित सरस्वती कूल पर जनमे वसिष्ट नामधारी
मैत्रावरुण का भारतीय ग्रंथों में अलग से चर्चा की गई है। मैत्रावरुण
(वसिष्ठ) व अक्षमाला (अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा-मनुस्मृति-9/23)
के वंशधरों से प्रसूत हुई उत्तराधिकारियों की शृंखलाएँ ही सूर्यकुल के
राजपुरोहितों के रूप में प्रसिद्ध हुई थीं। मूल वासिष्ठों के अनुरूप ही भृगु
व ख्याति ने देमावंद पर्वत क्षेत्र (आधुनिक एलब्रुज शिखर) के समीप ही अपने
आश्रम को स्थापित किया था। कालांतर में आदित्य वरुण को भी 'भृगु' नामक एक
यशस्वी पुत्र हुआ था। किंचित् भृगु गोत्रीय किसी तात्कालिक ऋषि द्वारा
दीक्षित होने के कारण ही वरुण के इस पुत्र को 'भृगु' के उपनाम से चिह्नित
किया जाने लगा होगा। 'जैमिनी ब्राह्मण' में प्रयुक्त हुआ 'भृगुहं वारुणिः' का
यह संदर्भ इन्हीं संभावनाओं की पुष्टि करता प्रतीत होता है। वरुण-पुत्र भृगु
को दिव्या व पौलोमी नामक स्त्रियों से क्रमशः काव्य-उशना (शुक्राचार्य) व
च्यवन नामक दो मेधावी पुत्र हुए थे। शुक्राचार्य तथा उनके वंशजों में क्रमशः
हुए त्वष्टा, अत्रि व सोम जहाँ असुर-याजक के रूप में चर्चित रहे थे, वहीं
च्यवन के वंशधरों में क्रमशः प्रतिष्ठित हुए और्व, ऋचिक, दधीचि, परशुराम व
वाल्मीकि आदि अपने महान् कृत्यों के कारण विशेष रूप से प्रख्यात रहे थे।
च्यवन कुल में उत्पन्न हुए और्व के ही प्रभाववश लोहित्य सागर (Red Sea) का
पूर्वी भाग ‘और्वस्थान' के रूप में तथा प्रकारांतर में भाषाई अपभ्रंश के
परिणामस्वरूप ‘अरब स्थान' या फिर 'अरब' के नाम से चिह्नित हुआ।
उपर्युक्त सप्तऋषियों के अलावा भारत स्थित सरस्वती कूल पर स्थापित हुए
ब्रह्मा के मानस-पुत्र दक्ष ने अपनी सहधर्मिणी 'स्वाहा' के सहयोग से जलवायविक
संपुष्टि के लिए जिस विधा का सृजन किया, कालांतर में उसी को 'यज्ञ' के नाम से
जाना गया। अग्निहोत्र का प्रचलन करने के कारण दक्ष को ‘अग्नि' की अतिरिक्त
संज्ञा से तथा आहुति आदि के लिए व्यवहत मंत्र को उनकी पत्नी 'स्वाहा' के
प्रतीकात्मक ही उद्बोधित किया जाने लगा। यज्ञादि वैदिक कर्मकाडों के
प्रस्तोता रहे इस आद्य-ऋषि के प्रभाववश ही ऋग्वेद की पहली ऋचा (अग्निमीले
पुरोहितं यज्ञस्य) में अग्नि की आराधना की गई है। इसी तरह दृषद्वती के तट पर
निवास कर रहे क्रतु-क्षमा की जोड़ी ने गुरुकुल की परंपराओं का सूत्रपात किया।
कालांतर में इनके कुछ वंशधरों का प्रभाव आधुनिक तुर्किस्तान के गरडेशिया
(गरुड़धाम) तक फैल गया और यहीं से इनकी कुछ शाखाओं का विस्तार चीन तक जा
पहुंचा। चीन की अति प्राचीन 'किलितो' नामक जाति का प्राकट्य इन्हीं
क्रतु-गोत्रीय ‘क्रीतो' से ही फलित हुआ था। इधर संगीत की अपनी उच्च साधनाओं
में रमे रहे 'नारद' नामक ब्रह्मा के मानस-पुत्र का रुझान स्थायी निवास के
विपरीत स्वच्छंद विचरने में ही अधिक था। त्रिविष्टप या तिब्बत (अर्थात्
देवस्थली) के स्वर्गीय परिवेश के प्रति आकृष्ट रहने की उनकी विशेष मनोवृत्ति
के कारण भारतीय ग्रंथों में उन्हें 'देवर्षि' के अलंकरण से ही विभूषित किया
गया है। इन सभी आद्य ऋषियों के अलावा भी ब्रह्मा ने कुछ विशिष्ट मैथुनीय
मानवों को भी व्यक्तिगत रूप से दीक्षित किया था। इसी क्रम में ब्रह्मा द्वारा
ज्ञान-विज्ञान के गुणों से प्रदीप्त हुए कर्दम, कपिल, ऋभु, गौतम आदि
अमैथुनीय-संततियों के लिए भी भारतीय शास्त्रों में ब्रह्मा के मानस-पुत्रों
की समकक्ष श्रेणियाँ ही प्रदान की गई हैं। वस्तुतः अंतरिक्ष में व्याप्त
ध्वनि-तरंगों को अपनी एकनिष्ट साधनाओं से आत्मसात् करने तथा उन्हें वैदिक
सूक्तों के माध्यम से मानवी अभिव्यक्ति प्रदान करने का अभिनव दृष्टांत
प्रस्तुत करते हुए ब्रह्मा के मानस-पुत्रों ने जिस आध्यात्मिक व भौतिक विधाओं
का सूत्रपात किया था, उसी के आधार पर उनके सुयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा
मानवी ज्ञान-विज्ञान की सतत परंपराओं का अनूठा विकास संभव हो सका . था।
विश्व-पटल पर उभरे प्राचीन संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण इन्हीं पवित्र
सचेष्टाओं का परिणाम रहा था।
इस प्रकार आद्य-अयोनिजों को दीक्षा आदि संस्कारों के माध्यम से अपनी
मानस-संतान स्वीकार किए जाने व फिर प्रायोजित योजनाओं के अनुरूप
ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों में इनके पदार्पण के बाद निरंतर बढ़ रही
प्रजा के आचरणों को नियंत्रित करने की चिंता ब्रह्मा को सताने लगी। ब्रह्मा
तथा उनके मानस-पुत्रों द्वारा प्रदर्शित दृष्टांतों का सामान्य रूप से
अनुशीलन करते हुए धरती के अन्य अयोनिज तथा योनिज मानवों ने आहार-विहार संबंधी
न्यूनतम जैविक आवश्यकताओं का उपयोग करना तो सीख लिया था, परंतु सामाजिकता के
नाम पर उनका दृष्टिकोण मात्र पारिवारिक परिधि तक ही सीमित रहा था। फलतः
ब्रह्मा को अपनी परियोजनाओं के अनुरूप विकसित हो रहे इस मानवी समाज पर अंकुश
लगाने के लिए एक कुशल नेतृत्व की आवश्यकता का आभास हुआ। इस उद्देश्य की
संपूर्ति के लिए ब्रह्मा एक सुयोग्य स्रोत की खोज में लग गए और अंततः विकल्प
के रूप में उन्होंने अपनी एकमात्र अयोनिजा शिष्या को ही इस महान् कार्य के
लिए चयनित किया। इस तरह 'शारदा' नामक परम विदुषी शिष्या से सहवास कर ब्रह्मा
को जिस औरस-पुत्र की प्राप्ति हुई उसे ही स्वयंभू की गरिमा से संपन्न पिता का
पुत्र होने के कारण 'स्वायंभुव' के नामकरण से संबोधित किया गया। इस तरह
सर्वज्ञ पिता के संरक्षकत्व में संस्कारित हुए 'स्वायंभुव' एक प्रखर विद्वान्
होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक के रूप में भी ख्यातिलब्ध हुए।
सामाजिक-प्रबंधनों के लिए ब्रह्मा द्वारा रचे गए 'त्रिवर्ग शास्त्र' के आधार
पर स्वायंभुव ने यत्र-तत्र बिखरे पड़े मानवी घटकों को सांगठनिक सूत्र में
पिरोते हुए इन्हें एक व्यवस्थित तथा व्यापक आकार देना प्रारंभ किया।
स्वायंभुव के इन्हीं श्रमसाध्य प्रयासों से मानवों का एकांगी परिवेश
धीरे-धीरे सामाजिक ढाँचे में व प्रकारांतर में बृहद् मानवी समूहों में
रूपांतरित होने लगा। किंचित् संगठन की इसी महत्ता को दरशाने के लिए ही 'सं
गच्छध्वं स वंदध्वं सं वो मनांसिं जानताम्' (अर्थात् तुम सब परस्पर एक विचार
से मिलकर रहो, परस्पर प्रेम से वार्तालाप करो तथा तुम लोगों का मन समान होकर
ज्ञान प्राप्त करे-Go together, speak together, know your mind to be
functioning together from a common source) का यह सूत्र ऋग्वेद की ऋचाओं
(10/19/2) में सम्मलित किया गया था। इस प्रकार निरंतर बढ़ रहे जन-समूहों के
खाने, पहनने व रहने की समुचित व्यवस्थाओं व सुरक्षा के प्रबंधों के अलावा
इन्हें संस्कारित करने तथा योग्यताओं के अनुरूप इनके कर्तव्यों का विभाजन
करने के अपने एकनिष्ठ उद्यमों के कारण स्वायंभुव की ख्याति शीघ्र ही एक कुशल
व्यवस्थापक या प्रजापति के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। यही नहीं बल्कि
मानवी-सुधार के अपने कृत-संकल्पों को फलीभूत करने के कारण वे 'मनु' के
अतिरिक्त विशेषण से भी अलंकृत हुए। इस तरह स्वायंभुव के काल से अस्तित्व में
आई 'मनु' एवं 'प्रजापति' की यह परंपरा दीर्घकाल तक मानवी समाज में यथावत्
विद्यमान रही थी।
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