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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

बीस

 

संध्या के झुटपुटे में हनुमान और विभीषण सेतु-क्षेत्र में हताश-से खड़े थे। युद्धभूमि का यह क्षेत्र हताहत योद्धाओं के शरीरों से अटा पड़ा था, जैसे कहीं कंकड़-पत्थरों के ढेर लगा दिए जाएं। एक के ऊपर एक योद्धा का शरीर पड़ा था।

"यहीं कहीं आर्य राम और लक्ष्मण को भी होना चाहिए।" हनुमान ने धीरे से कहा। उनके शरीर पर कई घाव लगे हुए थे। कुछ पर औषधि लेपन हुआ था, कुछ पर वह भी नहीं हुआ था। गतिविधि में चपलता के स्थान पर एक थकान-सी थी। और मुखड़ा विषष्ण प्रतीत हो रहा था, "वे दोनों यहीं युद्ध कर रहे थे।"

"ऐसा तो नहीं कि वह दुष्ट-मेघनाद उनके शरीर अपने साथ ही लेता गया हो?" विभीषण ने धीमे स्वर में पूछा।

विभीषण के शरीर पर कोई घाव नहीं था, उन्हें दिन भर के युद्ध में प्रत्यक्ष भाग लेने का अवसर नहीं मिला। किंतु, उनकी डबडबाई आंखें उनके मन की हताशा प्रकट कर रही थीं।

"नहीं!" पीछे की भीड़ में से सागरदत्त आगे चढ़ आया, "वह आर्य राम और लक्ष्मण के शरीरों को अपने साथ नहीं ले जा सका।" वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ बोल रहा था, "उन्हें गिरते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा था। फिर यह भी देखा था कि उनके गिरते ही तेजधर के नेतृत्व में सहस्रों वानर, ब्रह्मास्त्र-प्रक्षेपित शस्त्रों की चिन्ता किए बिना, अपने हाथ में साधारण शस्त्र अथवा केवल शिलाखंड अथवा काष्ठ खंड लेकर मेघनाद पर टूट पड़े। वे लोग आर्य राम तथा लक्ष्मण के शरीरों के चारों ओर अभेद्य प्राचीर बन गए थे। मेरा दृढ़ विचार है कि इसी क्षेत्र में जीवित-मृत शरीरों के इन्हीं ढेरों में कहीं आर्य राम और लक्ष्मण के शरीर भी पड़े होंगे।"

"तेजधर कहां है?" हनुमान ने पूछा।

"वह भी यहीं कहीं धराशायी हुआ होगा।" सागरदत्त की आंखें छलछला आईं, "किसी समय मैंने भी आर्य राम से यही कहा था कि उनके आदेश पर हम लोग अपने सहित अपनी नौकाओं को सागर में डुबो देंगे; किंतु हम वह कर नहीं सके। तेजधर महाप्राण था। उसने तथा उसके साथियों ने आर्य राम और लक्ष्मण के जीवित अथवा मृत शरीरों के सम्मान की रक्षा के लिए जिस प्रकार से अपने प्राण दिए हैं, उससे हम सब गौरवान्वित हो उठे हैं। आप मेरी बात समझ रहे हैं लंकापति, जिस ब्रह्मास्त्र के सामने सारी वानर सेना बिछ गई, उस ब्रह्मास्त्र का मुख उन निहत्थे वानरों ने काष्ठ और पत्थरों सै मोड़ दिया।"

"मेघनाद लौट क्यों गया?" हनुमान जैसे अपने आप से पूछ रहे थे।

"ये सब बाद की चिंताएं हैं।" विभीपण ने अपने अश्रु पोंछ लिए, "संभव है, वह थक गया हो, उसने राम और लक्ष्मण को मृत मानकर और युद्ध अनावश्यक समझा हो, ब्रह्मास्त्र की क्षमता समाप्त हो गई हो, अथवा वह सहस्रों वानरों के निरीह बलिदान से भयभीत हो गया हो।" विभीषण रुके, "इस समय तो इन ढेरों में से जीवित योद्धाओं को पृथक कर उनका उपचार करो, सांत्वना दो।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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