आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
(क)
कंटक करि - करि परत गिरि, साखा सहज खजूरि।
मरहिं कुनृप करि - करि कुनय, सो कुचालि भव भूरि॥
कछु कहि नीच न छोड़िये, भलौ न वाको संग।
पत्थर डारे कीच में, उछरि बिगारे अंग॥
कठिन कला हू आइ है, करत-करत अभ्यास।
नर ज्यों चालतु बरत पर, साधि बरस छह मास॥
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।
कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौरात है, या पाये बौराय॥
कनक कामिनी देखि के; तू मत भूल सुरंग।
मिलन बिछुरन दुहेलरा, जस केचुलि तजत भुजंग॥
कपट सार सूची सहस, बाँधि बचन परवास।
किय दुराउ चह चातुरी, सो सठ तुलसी दास॥
कन कन जोरे मन जरै, खाते निवरै सोय।
बूंद-बूंद सो घट भरै, टपकत रीतै होय॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम, कबहुँक प्रकट पतंग।
बिनसइ उपजइ ज्ञान जिमि, पाइ कुसंग सुसंग॥
कबहुँ प्रबल वह मारुत, जहँ-तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कुपूत के ऊपजे, कुल सदधर्म नसाहिं॥
कबिरा खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होय॥
कबिरन भक्ति बिगारिया, कंकर पत्थर धोय।
अन्तर में विष राखि के, अमृत डारिनि खोय॥
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठग्यां सुख ऊपजै, और ठग्यां दुख होइ॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घर जिता बधावणा, तिहिं घर तिता अंदोह॥
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकडै भेड़ की, उताँ चाहैं पार॥
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ।
एक तैं सब होत हैं, सब तैं एक न होइ॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसखरा, तिनकूँ आदर होइ॥
कबीर कलिजुग आइकरि, कीये बहुत जो मीत।
जिन दिल बाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवें निचिंत॥
कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ।
राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होइ॥
कबीर कहा गरबियौ, काल गहै कर केस।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥
कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिकै पपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥
कबीर का तू चितवै का तेरा च्यत्यां होइ।
अणच्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ॥
कबीर कूल तौ सों भला, जिहि कुल उपजों दास।
जिहि कुल दास न ऊपजे, सो कुल आक-पलास॥
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गले राम की जेवड़ी, जित खेचत तित जाउँ॥
कबीर केवल राम की, तू जिनि छौड़े ओट।
घण-अहरानि विचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट॥
कबीर घास न दीजिए, जो पाऊँ तलि होई।
ऊड़ि पड़े जब आँखि मैं, खरी दुहेली होई॥
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड्ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास।
कबीर ऐसौं होइं रहया, ज्यूं पाऊं तलि घास॥
कबीर जग की कोकहैं, भौजलि बूडै दास।
पार ब्रह्म की पाति छाँड़ि करि, करै मानिकी आस।।
कबीर जात पुकारिया, चढ़ि चन्दन की डार।
बाट लगाये ना लगे, पुनि का लेत हमार॥
कबीर मन पंछी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ॥
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै।
नहितर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै॥
कबीर तुरी पलणियां, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ सांई मिलौ, पीछै पड़िहै राति॥
कबीर दुनिया देहुरै, सीस नवाँवण जाई।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौं ल्यौ जाई॥
कबीर, दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि।
यहु शीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि॥
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगध अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥
कबीर नौवत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पाटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥
कबीर पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देह बहाइ।
बावन आखिर सोधि करि, 'रै' ममै चित लाइ॥
कबीर प्रेम न चाषिया, चाषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुणा, ज्यूं आया त्यूं जाव॥
कबीर बन-बन में फिरा, कारिणि अपठौं राम।
राम सरीखे जन मिलें, तिन सारे सबरे काम॥
कबीर भरम न भाजिया, बहुविधि धरिया भेष।
साईं के परचावते, अन्तर रहि गइ रेष॥
कबीर भाठी कलाल की, बहतक बेठे आइ।
सिर सौंपे साई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रम।
कोटि कर्म सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम॥
कबीर माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनिवर मिले, किसो भरौसौ त्याँह॥
कबीर माया पापणी, फंध ले बैठि हाटि।
सब जग तौ फँधे पड्या, गया कबीरा काटि॥
कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खाँड।
सतगुरु का कृपा भई, नहीं तौ करती भाँड॥
कबीर मारूँ मन कूँ, टूक-टूक है जाइ।
विष की क्यारी बोइ करि लुणत कहा पछिताइ॥
कबीर माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहऱ्यां हरि मिले, तौ अरहट कै गलि देखि॥
कबीर मालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जगै विषई विष भऱ्या, कै दास बंदगी होइ॥
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥
कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूँ जोडि मन, संधे संधि मिलाइ॥
कबीर रेख स्यदूंर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ॥
कबीर संगत साधु की, करे न निरफल होइ।
चंदन होसी ऑवना, नीब न कहसी कोइ॥
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुकत बताइ॥
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्या हेत।
काम क्रोध सूं झझणा, चौड़े मांड्या खेत॥
कबीर सतगुरु ना मिल्या, रही अधुरी सीप।
स्वांग जती का पहरि करि, धरि - धरि माँगै शीष॥
कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हितु न कोइ।
गुण औगुण बिहडै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ॥
कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाको संग तै बीछुड्या, ताही के संग लागि॥
कबीर सो धन संचिये, जो आगै होइ।
सीस चढ़ायें पोटली, ले जात न देख्या कोई॥
कबीर हरि का भावता, झीणा पंजर तास।
रेणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस॥
कबीर हरि के नाँव तूं, प्रीति रहै इकतार।
तौ मुख तै मोती झड़े, हीरे अन्त न पार॥
कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुम्हार का,बहुरि न चढ़ई चाकि॥
कबीर हरि सबकूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस शरीर की, तब लग दास न होइ॥
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निशान।।
करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
मानहुँ टेरत बिटप चढ़ि, मोहि समान को कूर॥
करता करै बहुत गुण, औगुण कोई नाँहि।
जो दिल खोजौं आपणो. सब औगुण मुझ माँहि॥
करते जो सहकार सफलता उनकी चेरी है।
सफल नहीं वे रहे, जिन्होंने शक्ति बिखेरी है॥
कर रहे भाव पूजन तुम्हारा, मातु स्वीकार लो धन्य कर दो।
मन वचन कर्म से हो समर्पण,भावना तीव्र अन्तर में भर दो॥
कर रहे हैं साधना हम, शक्ति गुरुवर आप देना।
देखना हम गिर न पायें, बीच में ही थाम लेना॥
कर लो माँ स्वीकार हमारे पूजन को।
बाँटे विमल प्रसाद तुम्हारा जन-जन को॥
करेंगे प्रज्ञा से सहकार, उठायेंगे मिलजुलकर भार।
कि इस भू पर फिर से, एक नया संसार बसायेंगे।।
करेंगे सुधार जन-जन का, जमाना नया आएगा।
पायेंगे दुलार जन-जन का, जमाना नया आएगा॥
करें प्रयत्न आज हम समग्र क्रान्ति के लिए।
करें निरस्त भ्रान्ति जो जलायें आज वे दिये॥
करें व्यक्ति निर्माण धरा को स्वर्ग बनाना है।
इन ईटों पर ही नवयुग का भवन उठाना है।।
करो संकल्प कुछ बढ़कर, घड़ी यह आज आई है।
मुबारक जन्म दिन तुमको, बधाई है - बधाई है॥
करो सदा चित चेत की, उचित नारी सम्मान।
सब प्रकार सम्पत्ति युत, होंगे सुखी महान॥
करौं कुबत जग कुटिलता, तजौ न दीन दयाल।
दुखी होहुगे सरल चित, बसत त्रिभंगी लाल।।
कर्मों के फल से न बचोगे, चलना बहुत संभाल के।
अभी समय है अभी बदल लो, तेवर अपनी चाल के॥
कलि का स्वामी लोभिया ,मनसा घटी बधाइ।
दहि पईसा ब्याज कौ ,लेखा करता जाइ।।
कलियग ही में लखी अति, अचरजमय यह बात।
होत पतित पावन पतित, छुवत पतित जब गात॥
कल्याण मेरे इस जीवन का, भगवान न जाने होगा कब।
जिससे भय भ्रान्ति मिटा करती,वह धन्य न जाने होगा कब॥
कहाँ छुपा बैठा है अब तक, वह सच्चा इन्सान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान, खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
कहा करौ वैकुण्ठ लै, कल्पवृक्ष की छाँह।
रहिमन ढाक सुहावनो, जो गल प्रीतम बाँह॥
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, सोई साँचे मीत॥
कहुँ रहीम कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय॥
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥
कागज को सो पूतरा, सहजहिं में घुल जाए।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैचत बाय॥
काम जब तक तुम्हारा पड़ा, हम रुकेंगे नहीं एक पल चैन से।
शूल अनगिन भले ही चुभे पाँव में, उफ भी कभी कर सकेंगे नहीं॥
काम ज्यादा बातें कम, मेहनत से हैं शाने वतन।
मेहनत से ईमाने वतन, ईमाने वतन, ईमाने वतन॥
कामी लज्या ना करै मन माहें अहिलाद।
नींद न मागै साँथरा भूख न माँगै स्वाद॥
कायर बहुत पमांवही, बहकि न बोलै सुर।
काम पड़या ही जाणिये, किस मुख परिहै नूर॥
कारज धीरज होत है, काहै होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सीचौं नीर॥
कारज कोई सुधरि है, जो करिये समझाय।
अति बरसै-बरसै बिना, जो खेती कुम्हलाय।।
कारन ते कारज कठिन, होइ दोष नहिं मोर।
कुलिस अस्थि ते उपल ते, लोह कराल कठोर॥
कारे बड़े उपजै, जोरे बड़ि बुधि नाहिं।
जैसा फूल उजारिया, मिथ्या लगि झरि जाहि॥
कार्य करै नहिं दोषमय, कायर की पहिचान।
भोजन तजता कौन जन, अन पचकर उरमान॥
काल तोपची तुपक महिं, दारू अनय कराल।
पाप पलीता कठिन गुरु, गोला पुहुमी-पाल।।
काला सर्प शरीर में, खाइनि सब जग झारि।
बिरले ते जन बाँचि हैं, जो रामहि भजे बिचारि॥
काह कामरी पामड़ी, जाड़ गए से काज।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिले अनाज॥
काहे हिरनी टूबरी, यही हरियरे ताल।
लक्ष अहेरी एक मृग, केतकी टारों भाल॥
कितनो मनावो पाँव परि, कितनो मनावो रोय।
हिन्दू पूने देवता, तुरूक न काहु होय॥
किये मंत्र जप माला फेरी, पूजन आठो याम का।
यह जीवन किस काम का, यह जीवन किस काम का॥
किसी के काम जो आये, उसे इन्सान कहते हैं।
पराया दर्द अपनाये, उसे इन्सान कहते हैं।।
किसी दिन देख लेना तुझको, ऐसी नींद आयेगी।
तू सोया न फिर जागेगा, न तुझे दुनिया जगायेगी।
कीजे चित सोई तरौं, जिहि पतितन के साथ।
मेरे गुण अवगुन गगन, गनो न गोपीनाथ॥
कृष्ण समीपी पाण्ड्वा, गले हिंवारे जाय।
लोहा को पारस मिलै, तो काहे को काई खाय॥
केते दिन ऐसे गये, अनरूचे का नेह।
ऊपर बोय न ऊपजै, अति घन बरसे मेह॥
केतेहि बुन्द हलफो गये, केते गये बिगोय।
एक बुन्द को कारणे, मानुष काहेक रोय॥
केरा तबहि न चेतिया, जब ढिग लागी बेर।
अब के चेते क्या भया, जब काँटन लीन्हा घेर॥
के समसों के अधिक सों लारये करिये बाद।
हारे जीते होत है, दोऊ भाँति संवाद।।
केसों कहा बिगाड़िया, जो मुंडे सौ बार।
मन को काहे न मूड़िये, जाकै विषय-विकार॥
कै तोहि लागहिं राम प्रिय, कै तू प्रभु प्रिय होई।
दुह मँह रूचे जा सुगम, सो कीजै तुलसी सोई॥
कैसी गति संसार की, ज्यों गाडर की ठाट।
एक परा जो गाड़ में, सबै गाड़ में जात॥
कैसी छाई लाली आज आकाश, सुबह होने वाली है।
भ्रम का अब कोई न रहेगा दास,सुबह होने वाली है॥
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर।
रहिमन बसि सागर विषे, करत मगर सों बैर॥
कोउ रहीम जहिं काहुके, द्वार गए पछिताय।
संपति के सब जात हैं, विपति सबै ले जाय॥
कोउ विश्राम कि पाव ,तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि-पचि मरिय॥
कोऊ कौड़िक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।
मोर संपति जदुपति सदा, विपति विदारन हार॥
कोऊ न सुख दुख देत है, देत करम झकझोर।
उरझै सुरझै आप ही, ध्वजा पवन के जोर॥
को कहि सकै बड़ेन सौं, लखे बड़ो हूँ भूल।
दीने दई गुलाब को, इन डारन ये फूल।।
को चाहे अपनो तऊ, जासंग लहिये पीर।
जैसे रोग शरीर ते, उपजत दहत शरीर॥
को छूट्यो यहि जाल परि, कत कुरंग अकुलात।
ज्यों-ज्यों सुरझि भज्यो चहत, त्यौं-त्यौं उरझत जात॥
कोटि है प्रणाम चरणों में वेदमूर्ति,
तेरे ही गुणों का गान होता ठौर-ठौर है।
त्याग है महान तप तेज है महान तेरा।
तुझसा महान कोई दीखता न और है॥
कोटि जतन कोऊ करो परै न प्रकृतिहि बीच।
नल बल जल ऊँचे चढ़े तऊ नीच को नीच॥
कोठी तो है काठ की ढिग-ढिग दीन्ही आग।
पण्डित जरि झेली भये साकर उबरे भाग॥
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे,
कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे।
तुम बुलाते हो उसे यदि भावना से,
कौन जाने कब निमंत्रण मान बैठे॥
कौन बड़ाई जलधि मिली, गंग नाम भी धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी पर घर गये रहीम॥
कौन भाँति रहिहै बिरद, अब देखिबी मुरारि।
बीधे मो सो आन कै, नीधे गीध हितारि॥
कौन है किसका यहाँ पर, हैं सभी आते अकेले।
कौन किसका साथ देता, हैं सभी जाते अकेले॥
कौमी तिरंगे झंडे, ऊँचे रहो जहाँ में।
हो तेरी सर बुलन्दी, ज्यों चाँद आसमाँ में॥
कौरव पाण्डव जानिये, क्रोध क्षमा के सीम।
पाँचहि मारि न सौ सके, सऔं संहारे भीम॥
क्या मुख ले बिनती करौं, लाज आवत है मोहि।
तुम देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहि॥
क्या हो गया प्रकाश पुत्र को, अंधकार स्वीकार कर लिया।
तम से समझौता कर डाला,तम को नातेदार कर लिया॥
क्यूं नृप - नारी नीदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान।
वा माँग सँवारै पीव कौं ,या नित उठि सुमिरै राम॥
क्यों करिये प्रापति अलप, जामें श्रम अति होइ।
कानु जु गिरिवर खोदि के, चूहों काढ़े जोइ॥
क्यों न गुरु को करें हम नमन,
मुक्ति का द्वार है जिनकी पावन शरण।
द्वार है मुक्ति का, स्रोत है शक्ति का,
दृष्टि जिनकी करे पातकों का शमन॥
क्रान्ति का अध्याय लिखकर, दे गये हैं आप जो।
हम कदम उससे कभी, पीछे हटायेंगे नहीं॥
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