आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
आत्मीय जन जब कभी बिछुड़ने के बाद पुनः मिलते हैं तो उस मिलन बेला में अत्यधिक आनन्द अनुभव होता है। पति-पत्नी दूर-दूर रहते हों और बहुत दिन बाद वे मिलते हैं तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रहती है। कोई भी प्रेमी सम्बन्धी हो परस्पर मिलते हुये सभी को प्रसन्नता होती है। कई बार तो यह आनन्द इतना बढ़ाचढा होता है कि इसके लिये लोग आवश्यक कार्यों को भी छोडकर उस सहचर-आनन्द में निमग्न बने रहते हैं। कई छात्र पढ़ाई छोड़ कर यार, दोस्तों के साथ मटरगश्ती में बहुत सारा समय लगा देते हैं। कारण एक ही है कि जहाँ कहीं भी प्रेम, एकता और आत्मीयता का दर्शन होगा वहीं मनुष्य शान्ति और सन्तोष प्राप्त करेगा।
ईश्वर प्राप्ति और ईश्वर भक्ति के लिये सच्चे मन से प्रयत्न करने वालों को असीम आनन्द की अनुभूति होती है। क्योंकि परमात्मा ही आत्मा का उद्गम केन्द्र, सजातीय और सच्चा स्नेही सम्बन्धी है। सांसारिक प्रियजनों के साथ उठने-बैठने में जीव को इतना आनन्द आता है तो आत्मिक और वास्तविक प्रिय-प्रेमी परमात्मा के सान्निध्य में आनन्द क्यों नहीं आना चाहिये? जिनका मन उपासना में लगता नहीं, या जिन्हें आनन्द नहीं आता, समझना चाहिये कि इन्होंने उपासना के तत्वज्ञान, आदर्श और विधान को अभी समझा ही नहीं है। पूजा का कर्मकाण्ड तो करते रहते हैं पर उपासना में आनन्द की अनुभूति उन भावनाओं पर निर्भर रहती है जो दो बिछुड़े हुओं को जोड़ने के लिये आवश्यक है।
इस लेख माला के अन्तर्गत आगे किसी अंक में यह बतावेंगे कि उपासना के समय अलौकिक आनन्द की अनुभूति का लाभ किस प्रकार मिल सकता है। अभी इन पंक्तियों में तो इतना ही बताना है कि इस संसार के जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ का कार्यक्रम वियोग दूर करके संयोग का आनन्दमय मिलन प्राप्त करना है। धातुओं की खानों का पता लगाने वाले अन्वेषक मिट्टी में मिले हुए धातु कणों की चाल और दिशा का हिसाब लगा कर यह निर्धारित करते हैं कि यहाँ से कितनी दूरी पर, किस दिशा में किस धातु की कितनी बड़ी खान होनी चाहिये। बात यह है कि मिट्टी में हर धात के कण मिले होते हैं। वे कण सूक्ष्म आकर्षण शक्ति से खिंचते हुये धीरे-धीरे अपने आप किसी दिशा में सरकते रहते हैं। धातु की बड़ी खान जहाँ होती है वहाँ से अपने सजातीय कणों को खींचने की एक चुम्बकीय विद्युतधारा काम करती रहती है। उसी के खिंचाव से धातुओं के कण अपनी-अपनी जाति की धातुओं की ओर सरकते चले जाते हैं और उनके इकट्ठे होते रहने से खानों में धातुओं की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहती है।
आत्मा को मिट्टी में मिला हुआ धातु कण कहा जाय तो परमात्मा को एक विशाल खान कहा जायेगा। छोटा अणु जब तक रेत में मिला रहता है, तब तक उसका कोई मूल्य और महत्व नहीं रहता, पर जब वह घिसटने-घिसटते खान में सम्मिलित हो जाता है तो उसका अस्तित्व सभी की दृष्टि में आता है और उस एकत्रित पदार्थ का उपयोग भी बहुत भारी होता है। आत्मा जब परमात्मा के समीप पहुँचती है, तो उसमें ईश्वरीय तत्वों की इतनी मात्रा बढ़ जाती है कि मनुष्य भी ईश्वर जैसा दीखता है। ऋषियों और महापुरुषों में इसी प्रकार की ईश्वरीय विशेषता रहती है। यह समीपता बढ़ते-बढ़ते जीव अन्ततः जीवनमुक्ति का ही अधिकारी बन जाता है।
आत्मा और परमात्मा की एकता के साथ-साथ जिस परमानन्द एवं ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है, उसे पाकर जीव धन्य बन जाता है, इस एकता के लिए जहाँ उपासना साधना और भावना का अवलम्बन करना आवश्यक होता है। वहाँ यह भी अनिवार्य है कि जीवन की गतिविधियाँ प्रथकतावादी नहीं वरन् एकतावादी हों। अध्यात्म और अनात्म, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, उचित और अनुचित का निर्णय इसी आधार पर होता है कि उसके मूल में एकता की ओर बढ़ने न बढ़ने की कितनी भावना सन्निहित है। नीति, धर्म और आचार शास्त्र का समस्त विधि विधान इस एक तथ्य को ध्यान में रखकर ही रचा गया है।
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