आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
ईश्वर और जीव का मिलन संयोग
सृष्टि संचालन का क्रीड़ा कौतुक रचने के लिए परमात्मा एक से बहुत बना। उसकी इच्छा हुई कि "मैं अकेला हूँ-एक से बहुत हो जाऊँ" उसकी यह इच्छा ही मूर्तिमान होकर सृष्टि के रूप में प्रस्तुत हो गई। "एकोऽहम् बहुस्यामि" का संकल्प साकार रूप धारण कर यह संसार बन गया। निर्माण होने के बाद उसका लक्ष्य और कार्यक्रम निर्धारित होना था सो इस प्रकार हुआ कि-बहुत भागों में विभक्त हुये ब्रह्म-विभाग पुनः एकता की ओर चले। अणु रूप में बिखरा हुआ जीवन पुनः विभु बने। बादल से छोड़ी हुई बूंदें अलग-अलग बरसें भले ही पर वे एकत्रित होकर पुनः समुद्र की रचना के लिये गतिशील भी बनी रहें। आत्माएँ अलग-अलग दीखते हुए भी उनकी गतिविधि पुनः इस अलगाव को मिटाकर एकता की ओर उन्मुख रहे। यही सृष्टि का लक्ष्य और कार्यक्रम बन गया। इस तथ्य के आधार पर जड़-चेतन सृष्टि की विविध विधि गति-विधियाँ चलती रहती हैं।
बिछुड़ने की क्रिया के साथ इस सृष्टि की रचना तो हुई है पर आगे का कार्यक्रम मिलन और एकता पर आधारित है। समुद्र का पानी भाप बनकर अपने केन्द्र स्थल से बिछुड़ कर सुन्दर हिम प्रदेशों में जाकर बर्फ बन जाता है। किन्तु यह बिछुड़ने की प्रक्रिया देर तक स्थिर नहीं रहती। जैसे ही अवसर मिलता है, थोड़ी गर्मी का सहारा पाकर बर्फ पिघलती है और वह पानी जैसे-जैसे अपना मार्ग खोजता हुआ नदी नालों में होता हुआ समुद्र की ओर दौड़ पड़ता है। बढ़ते हुये पानी की बेचैनी और दौड़ धूप तब तक समाप्त नहीं होती जब तक कि वह परिपूर्ण जलाशय समुद्र में मिल कर स्वयं भी उसी रूप में परिणत नहीं हो जाता। जल आरम्भ में भी पूर्ण था, भाप बन कर अपूर्णता उसे प्राप्त हुई तो उसे दूर करने का प्रयत्न अनेक हलचलों के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा। इसी हलचल का नाम सृष्टि क्रम है। इसे अशान्ति भी कह सकते हैं। मिलन ही इस अशान्ति का उद्देश्य है और जब अपूर्णता दूर होकर पूर्णता की उपलब्धि हो जाती है तो दौड़ धूप भी समाप्त हो जाती है और अशान्ति भी।
मानव जीवन का यही क्रम है। नियति की व्यवस्था ने केन्द्रीय परिपूर्णता से बिछुड़ा दिया है। अब उसके सामने एक ही कार्यक्रम रह जाता है कि तेजी के साथ पुनः केन्द्र की ओर दौड़े और अपनी अपूर्णता को समाप्त कर पूर्णता में विलय हो जाय। इसी को जीवन लक्ष्य कहते हैं। मुक्ति, पूर्णता ब्रह्म निर्वाण आदि भी इसे ही कहा गया है।
बिछुड़ने की कष्टकर प्रक्रिया इसलिये चली कि जीव मिलन के आनन्द का आस्वादन कर सके। माता अपने शरीर का रक्त मांस एकत्रित करके पेट में एक नन्हें शिशु की रचना करती है। जब तक वह शिशु रक्त माँस के रूप में था या भ्रूण बन रहा था, तब तक उसमें कोई विशेष आकर्षण न था पर जब वह गर्भ परिपक्व होकर शरीर से बाहर निकल गया, बिछुड़ गया और मां-मां कह कर पुनः अपनी माँ की गोद में आने के लिये विलाप करने लगा तो प्रेम भावना की लहरें उठने लगीं। माता उस बच्चे को छाती से लगा लेती है और उसके साथ मिलन का असीम आनन्द और प्रेम अनुभव करती है। बच्चे को भी माँ के बिना चैन नहीं पड़ता। बिछुड़न ने मिलने की प्रेरणा दी और जैसे ही उसका प्रयत्न आरम्भ हुआ कि प्रेम बरसने लगा।
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