लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

111 पाठक हैं

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


समाज को विराट् ब्रह्म का स्वरूप माना गया है। गीता में अर्जुन को, रामायण में काकभुसुण्डि और कौशल्या को, भागवत में यशोदा को भगवान ने अपना विराट रूप दिखाया है। वह समस्त विश्व ब्रह्माण्ड ही तो है। यह सारा संसार भगवान का ही रूप है, इस मान्यता को अन्तरात्मा में स्थिर कर लेने पर हर घड़ी परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं और साथ ही वह आनन्द उल्लास भी अनुभव हो सकता है जो परमात्मा का दर्शन करते हुए होना चाहिए। इस भावना के अनुसार व्यक्ति का यही कर्तव्य निर्धारित होता है कि वह हर पदार्थ और हर प्राणी के प्रति सद्भावना रखे और हरेक से सद्व्यवहार बरते। विचारणा और क्रिया का यह स्तर धर्म और सदाचार पुण्य और परमार्थ ही कहलाता है।

संगठन और एकता से प्राप्त होने वाले लौकिक लाभों से सभी परिचित हैं। मिल-जुल कर काम करने से, प्रेम और आत्मीयता की भावना रखने से संगठित और समूहबद्ध रहने से अगणित प्रकार के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक लाभ प्राप्त होते हैं इसकी जानकारी हम सबको है ही। इसलिए हर मंच से विचारशील व्यक्ति यही कहते रहते हैं कि हमें संगठित होना चाहिए, एकता रखनी चाहिए। कलियुग में तो संघशक्ति को ही प्रधान माना गया है। "संघशक्ति कलौयुगे" का मंत्र सभी की विचारणा में मौजूद है। तिनके मिल कर मजबूत रस्सी और कमजोर सींके मिल कर बुहारी बनने का उदाहरण देकर हम लोग एक दूसरे को समझाते रहते हैं कि फूट और प्रथकता से हानि एवं सङ्गठन और एकता से लाभ हैं। इस उद्देश्य के लिये अनेकों संस्थाएँ भी काम करती हैं। प्राचीन काल में धर्म सम्प्रदायों का भी यही उद्देश्य था।

मानव जीवन को लौकिक सुविधा और सुरक्षा के लिये एक की भावना जितनी आवश्यक है आत्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसकी और भी अधिक आवश्यकता है। व्यक्ति जितना ही प्रथकतावादी, संकीर्ण, स्वार्थी होगा, उतनी ही पाप वृत्ति उसे घेरे रहेगी। जिसे अपना ही मतलब है, जो अपने ही लाभ और स्वार्थ की बात सोचता रहता है, उसे दूसरों के प्रति प्रेम और दर्द क्यों होगा? ऐसा व्यक्ति अपने लाभ के लिये दूसरों का कुछ भी अहित कर सकता है। मांसाहार, चोरी, ठगी, हत्या, बेईमानी, धोखेबाजी आदि पापकर्मों के पीछे कर्ता की स्वार्थपरता, संकीर्णता ही प्रधान रहती है। यदि दूसरे लोग भी अपने ही आत्मीय, स्वजन सम्बन्धी एवं भगवान के प्रतिनिधि दीखने लगें, सब में अपनी आत्मा दिखाई पड़े तो यह सम्भव नहीं कि मनुष्य कोई दुष्कर्म कर सके। संकीर्णता एवम् स्वार्थपरता ही समस्त प्रकार के कुकर्म कराती है। लोभी और कंजूसों में एक ही दुर्गुण होता है कि वे केवल अपनी ही बात सोचते रहते हैं। कई अध्यात्मवादी कहलाने वाले सजन भी इसी श्रेणी में जा बैठते हैं, उनकी भावना भी संसार को भाड़ में जाने देकर अपनी मुक्ति प्राप्त करने की रहती है। ऐसे लोग मुक्ति तो दूर अपना लौकिक जीवन भी सफल बनाने में समर्थ नहीं हो सकते।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book