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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्तों में इस बात पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति की योग्यता एवं कमाई का लाभ सारा समाज उठावे। व्यक्तिगत प्रतिभा एवम् क्षमता अधिक होने पर भी उससे उत्पन्न लाभों से वह व्यक्ति ही लाभान्वित न हो वरन् सारा समाज एक है इसलिये दूसरों को भी उसका लाभ मिले। अन्य बातों में इन वादों से मतभेद हो सकता है पर इतना अंश तो आध्यात्मिक आदर्शों की ही पुष्टि करता है कि व्यक्ति की सीमा उसके निज के छोटे दायरे में नहीं वरन् विश्व हित के व्यापक तथ्य से जुड़ी हुई है। व्यक्ति अपनी योग्यता चाहे जितनी बढ़ावे, उत्पादन चाहे जितना करे पर यह न सोचे कि इसका लाभ मुझे ही मिलना चाहिये। विचारणा और क्रिया आरम्भ करने से पूर्व यह सोचा जाना चाहिये कि इसका प्रभाव दूसरों पर क्या पड़ेगा? विश्व हित की दृष्टि से मेरे विचार और कार्यों की क्या प्रतिक्रिया होगी।

दुष्कर्मों का आधार व्यक्तिगत संकीर्णता और स्वार्थपरता ही है। जब तक यह दुष्प्रवृत्तियाँ मनोभूमि में जड़ जमाये रहेंगी तब तक मनुष्य प्रकट न सही तो गुप्त रूप से, एक प्रकार से न सही.तो दूसरे प्रकार से दुष्कर्म करता रहेगा और उसकी गतिविधियाँ संसार में विक्षोभ एवं सन्ताप उत्पन्न करती रहेंगी।

जीवन का लक्ष्य पृथकता, बिछुड़न से पीछा छुड़ा कर प्रेम और एकता की ओर अग्रसर होना है ताकि बिछुड़ा हुआ अपने उद्गम परमात्मा के समीप पहुँच कर मिलन आनन्द लाभ कर सके। इसके लिए वे उपासना उपयोगी होती हैं जो जीव और ईश्वर की एकता अनुभव कराने में समर्थ होती हैं। साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति का जीवनक्रम एकता के आदर्शों के अनुकूल रहे। हम सब ईश्वर के अमर पत्र आपस में भाई बहिन हैं। परस्पर प्रेम और एकता की भावना से ओत-प्रोत सामूहिक हित से सत्कार्य करने और सद्भाव से ही तो स्वार्थपरता व हृदयों की वह दूरी समाप्त हो सकती है जो इस संसार में विभिन्न प्रकार के उपद्रव आये दिन खड़े करती रहती है।

शान्ति और सृष्टि के लिये सद्गति और जीवन मुक्ति के लिये एक ही मार्ग है, ईश्वरीय सृष्टि विधान के अनुसार भगवत इच्छा के अनुसार आचरण करना। भगवान ने अपने से जीवों को पृथक करके उन्हें तेजी से अपनी ओर दौड़ कर आने का खेल रचा है। इसी खेल को हम समझें। उसकी इच्छा पूर्ण करें। अपनी संकीर्णता छोड़ें। जो कुछ चारों ओर दिखाई पड़ता है उसके साथ एकता और आत्मीयता अनुभव करें और विश्व विराट के लिए अपनी अहंता और संकीर्णता का आध्यात्मिक उत्सर्ग करते चलें। यह उत्सर्ग ही जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का मूल्य है। जो उसे चुकाने को तैयार है उसके लिए अभीष्ट वस्तु का प्राप्त कर सकना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता है।


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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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