आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
परमेश्वर के अजस्त्र अनुदान को देखें और समझें
बनाने और सँभालने वाले को अपनी वस्तु से स्वभावत: प्रेम होता है। हम मकान बनाते हैं, बगीचा लगाते हैं, चित्र बनाते हैं, पुस्तक रचते हैं, उनसे स्वभावत: लगाव और प्रेम होता है। ईश्वर ने हमें बनाया है, सँभाला है-और भविष्य में भी हमारी संभाल रखने का उत्तरदायित्व उसी के कन्धों पर है ऐसी दशा में उसका प्रेम भी हमें अनायास ही प्राप्त रहता है।
अपनी सन्तान को कौन प्यार नहीं करता है। पशुपक्षी तक उनके लिए कष्ट सहते त्याग करते हैं, और अविकसित हृदय में भी ममता, आत्मीयता उगाते हैं। यदि ऐसा न होता तो उन जीव-जन्तुओं के शिशुओं का जीवन धारण ही कठिन हो जाता। मनुष्य तो अन्य बातों में अन्य जीवों से आगे होने के कारण सन्तान पालन के लिए और भी अधिक तत्पर रहता है। केवल उन के भरण-पोषण का ही नहीं-शिक्षा-दीक्षा, विवाह शादी, रोटी रोजगार, सुख-दुःख में भी पूरी सहायता करता है। अपना अधिकांश समय, प्यार और प्रयत्न उन्हीं के लिए नियोजित रखता है। यहाँ तक कि मरने के उपरान्त अपनी जीवन भर की कमाई भी उसी के लिए उत्तराधिकार में छोड़ जाता है। अपने सृजन में ऐसा प्यार होना स्वाभाविक है।
हम परमेश्वर की सन्तान हैं। विकसित जीव अपनी सन्तान को अधिकतम दुलार देते हैं। ईश्वर को यदि प्राणधारी माना जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह सर्वोपरि सुविकसित प्राणी है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य जैसी सर्व साधन सम्पन्न सन्तान की उत्पत्ति कैसे करता। जन्म देकर ही कोई सहृदय अभिभावक अपनी सन्तान को भटकने के लिए नहीं छोड़ देता, फिर परमात्मा हम से विमुख कैसे हो सकता है। जब सन्तान के प्रति प्रेम होना सृष्टि का नियम है तो परमेश्वर का प्यार-अपनी सर्वोत्तम कृति-परम प्रिय सन्तानमनुष्य के लिए क्यों नहीं होगा?
इस प्रेम की विशिष्टता का परिचय इसी से मिलता है कि हमें ईश्वर प्रदत्त अत्यधिक सुविधायें उपलब्ध हैं। ऐसा लगता है मानो यह सारा जगत हमारी ही सेवा सुविधा और प्रसन्नता के लिए बनाया हो। जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाय हर्षोल्लास प्रदान करने वाले साधनों का बाहुल्य दीखता है। छोटे बच्चों को अभिभावक सुन्दर खिलौने लाकर देते हैं। जिधर भी दृष्टि दौड़ाकर देखें उधर ही एक से एक बढ़कर सुन्दर-सुसजित, मधुर गतिशील और भाव भरे खिलौने भरे और खड़े दीखते हैं। कैसी सुरम्य है इसकी शोभा कैसा महान है इसका सृजेता। मानवीय सुविधा का क्या ठिकाना। शरीर को ही लें, एक से एक अद्भुत क्षमता वाली इन्द्रियों के उपकरण जादू के पिटारे जैसा मन, ऋद्धि-सिद्धि जैसी प्रज्ञा। दर्पण में देखें तो देवता जैसा दीखता है। वह अपना आपा'। जीवन जीवन में घुला देने वाली पत्नी, किलकते फुदकते बच्चे, वात्सल्य भरे अभिवादन, भुजाओं की तरह साथी बन्धु तथा मित्र गण। कितना सुन्दर है यह सब। आजीविका के साधन, मनोरञ्जन की सुविधायें, प्रगति पथ के सहायक गुरुजन, क्या नहीं है यहाँ? प्रकृति अपना अंचल ताने छाया कर रही है। सूरज, चन्द्र, तारे, बादल, पवन, ऋतु परिवर्तन, क्या नहीं हैं यहाँ? वाहन, सहायक, पशु, वैज्ञानिक सुविधायें, इस सब सरंजाम पर दृष्टि डालते हैं तो परमेश्वर का प्रेम और अनुदान असीम मात्रा में अपने चारों ओर बिखरा पड़ा है। यह सब उसके प्रेम का प्रत्यक्ष परिचय नहीं तो और क्या है? जरा विचार करें, यदि हमारे पिता ने हाथ सिकोड़ लिया होता, उपेक्षा दिखाई होती तो बन्दर, कबूतरों से भी घटिया जीवन ही जिया जा सकता था। अद्भुत और अनुपम सुविधायें जिनका हम उपभोग कर रहे हैं। अपने बलबूते उन्हें कैसे जुटाया जा सकता था।
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