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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


यह हमारी अन्तरात्मा में विराजमान है। अहर्निश साथ रहने वाले साथी की तरह वह सहायता करने के लिए सदैव उपस्थित रहता है। पग-पग पर आने वाली कठिनाइयों का वही समाधान करता है। विपत्ति की भयावह विभीषिकाओं से बचा लेने के लिए उसी की लम्बी भुजाएँ सहायता के लिए आगे आती हैं। सङ्कट की घड़ी में धैर्य बँधाने वाला, सहारा देने वाला, रास्ता बताने वाला वही तो है। उत्ताल तरंगों वाले इस संसार सागर से हम उसी की नाव पर बैठकर तो पार होते हैं। परमेश्वर के प्रेम में कमी कहाँ है? उसके अनुदानों में न्यूनता कहाँ ढूँढी जा सकती है।

परमेश्वर के द्वारा अपने ऊपर अनवरत रूप से बरसते हुए प्रेम का कदाचित हम अनुभव कर सके होते तो उस अनुभूति की प्रतिक्रिया हमारे अन्तःकरण में भी प्रेम प्रवाह उत्पन्न करती। गाय के वात्सल्य को यदि बछड़े ने समझा होता तो उसे लगता कि मैं निरीह नहीं हूँ। एकाकी नही हूँ। मेरा कोई है और किसी का मैं हूँ। हम किसी के नहीं और कोई हमारा नहीं दूसरों की तो बात ही क्या-अपने आप के भी हम नहीं हैं। स्थिति की विषमता यहाँ तक पहँची है कि न आत्मा के हम और न आत्मा हमारा। न परमेश्वर हमारा और न परमेश्वर के हम। यह विडम्बना कैसे उत्पन्न हो गयी। अपने बिराने कैसे हो गये। अनन्य और अभिन्न आत्मीयता का प्रवाह कहाँ रुक गया? कैसे रुक गया?

यह विस्मृति की मूर्छना ही है जिसने अपने को पहचानने से वंचित कर दिया। प्रेम की अमृत वर्षा का अनुभव तक कर सकने में हम असमर्थ हो गये। हाय, हमारा यह क्या हो गया। मती रूपी सीता को कौन रावण हर ले गया। अपने लिए विलाप, रुदन और पतन ही क्यों रह गया? उत्कर्ष और आनन्द की समस्त उपलब्धियाँ कौन चुरा ले गया? हम एकाकी इस भयावह श्मशान में कहाँ आ भटके? आ क्यों गये? कौन यहाँ ले आया?

यह सारी माया इस अविद्या मरीचिका की है जिसने जल में थल और थल में जल दिखाने की भ्रान्ति उत्पन्न कर दी। परमेश्वर का प्रेम यदि याद रहा होता तो उसके साथ डोरी भी बँधी रहती। तब जीवन की पतङ्ग झोंके खाती हुई-नष्ट होने के लिए इस गर्त में क्यों गिरती।

जिस परमेश्वर ने इतना दिया है। उसी का पल्ला पकड़े रहते तो विवेक रूपी चिन्तामणि का एकमात्र उपहार जो शेष रह गया है वह भी प्राप्त कर लेते। यदि वह रत्न मिल जाता तो फिर कोई अभाव क्यों प्रतीत होता, कोई कष्ट क्यों सताता? अभाव यहाँ है कहाँ-कष्ट यहाँ आया कहाँ से? इस स्वर्ग में कुत्साओं के लिए स्थान कहाँ है? कुण्ठाओं के लिए गुञ्जायश कहाँ है ? परमेश्वर के राज्य में-परमेश्वर के पुत्र के लिए कष्ट-अभाव-यह कैसे हो सकता है?

अज्ञान ही है जो रुलाता है? अन्धकार ही है जो गिराता है। इस अज्ञान अन्धकार में भटक इसलिए रहे हैं कि परमेश्वर के प्रेम रूपी प्रकाश ने साथ रखने से इनकार कर दिया। यदि अपने अत्यन्त प्रिय पात्र के बरसते हुए प्रेम को अनुभव किया होता उससे लिपटने की, उसे साथ रखने की-अन्तःकरण में स्थान देने की चेष्टा की होती। यदि उससे लिपट जाते तो राम-भरत के मिलन जैसा आनन्द आता। तब राधा-कृष्ण की तरह, आत्मा और परमात्मा की एकता ने इस मधुवन में ऐसा रास रचाया होता कि यहाँ हास-उल्लास के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं।

परमेश्वर के प्रेम में न्यूनता ढूँढ़ना व्यर्थ है। अपनी दयनीय स्थिति के लिए दैव को दोष देना निरर्थक है। देखने के-सोचने के उलटे तरीके को बदलें। आत्मा और परमात्मा की सघनता को समझें। परमेश्वर के होकर रहें। उसके प्रकाश को अपनायें, उसकी तरह सोचें और उसके इशारे पर चलें तो वह हमारा हो जाय।

परमेश्वर का प्रसाद हम निरन्तर पा रहे हैं, उसे देख सकें तो उसे पाने के लिए व्याकुलता भी जग पड़े। इस महान जागरण में ही मानव जीवन की सार्थकता सन्निहित है।



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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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