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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कलाकृति असम्मानित न हो


कोई प्रतिष्ठित मूर्तिकार इस बात को ध्यान में रखकर मूर्ति बनाता है कि उसकी यह कृति सराही जाय और उसके निर्माण को, कलाकारिता को सम्मान मिले। अच्छे चित्रकार अपनी प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखते हैं और जो चित्र बनाते हैं उनमें अपने सम्मान को भी जुड़ा रखते हैं। प्रत्येक कलाकार अपनी कला-कृतियों में अपनी गरिमा का ध्यान रखता है। यदि वह भोंड़ी या भद्दी होती है तो उस कृति का ही तिरस्कार उपहास नहीं होता वरन् उसके सृजेता कलाकार का भी गौरव गिरता है।

ईश्वर की सर्वोत्तम कृति मनुष्य है। इसे बनाने तराशने में उसने अपनी कलाकारिता का अन्त कर दिया है। शरीर के एकएक कल पुर्जे की रचना और कार्य शैली पर विचार करते हैं तो विदित होता है कि संसार के समस्त वैज्ञानिक मिलकर ईश्वर निर्मित किसी एक अवयव की सही प्रतिकृति नहीं बना सकते। समस्त शरीर की रचना तो एक जादू के महल की तरह है।

मन का-मस्तिष्क का तो कहना ही क्या? गणक कम्प्यूटरी पर आश्चर्य किया जाता है पर विविध प्रयोजनों के लिए बने हुए उत्कृष्टतम लाखों कम्प्यूटर मिलकर भी मस्तिष्कीय चेतना की तुलना नहीं कर सकते। मन की, चित्त की- बुद्धि की क्षमता का तो कहना ही क्या? संसार में दीखने वाला समस्त मानवीय कर्त्तव्य आश्चर्य जैसा लगता है। मनुष्य के उद्भव से पूर्व का संसार और आधुनिक संसार की तुलना करते हैं तो इस दुनिया का अद्भुत निर्माण हुआ प्रतीत होता है। मनुष्य के हाथ में जितने साधन प्रस्तुत हैं उन्हें देखकर अचम्भा होता है। भविष्य की प्रगति सम्भावनाएँ और भी अधिक हैं। पर यह सब तत्वत: है क्या? मानवीय बुद्धि की एक क्यारी में उगे हुए पुष्पों की एक फसल ही इसे कह सकते हैं। समग्र बुद्धि की-सर्वांगीण उपलब्धियाँ यदि कभी एकत्रित की जा सकीं तो इस धरती पर स्वर्ग निछावर किया जा सकेगा और मनुष्य का अभिवन्दन देवता करेंगे।

यह शारीरिक और बौद्धिक क्षमता की बात हुई। अभी भावना क्षेत्र की-सूक्ष्म दिव्यता की बात शेष है। भावना का उभारजब प्रेम और आत्मीयता के रूप में प्रस्फुटित होता है तो प्रतीत होता है अमृत स्वर्गलोक में नहीं मानवीय अन्त:करण में विद्यमान है। तात्विक प्रेम की गङ्गा जिस उद्गम से उमड़ती है वह स्थान शिव के शीर्ष जैसा पवित्र और महान बन जाता है। प्रेमी स्वयं कितना पाता है- और प्रेममात्र को कितना देता है इसका लेखा-जोखा सांसारिक गणित से सम्भव नहीं हो सकता। जिसे प्रेम नहीं मिला उसे इस संसार से खाली हाथ जाना पड़ा। जिसे प्रेम मिल गया उसे तथाकथित अभावग्रस्त जीवन में भी हुलास उल्लास बिखरा दिखाई पड़ेगा। जो प्रेम दे सका है उसका तो कहना ही क्या- उससे बढ़कर दानी और कौन हो सकता है। जीवन रस से बढ़कर और किसी के पास क्या हो सकता है ? अन्तःकरण की उत्कृष्टता का सारतत्व प्रेम है। जहाँ बनता है वहाँ इत्र संस्थान जैसा सुगन्धित, हिम शिखर जैसा धवल शीतल पाया जायेगा। उस अनुदान की वर्षा वह जिस पर करता है उसे मृतक से जीवित कर देता है। प्रेम का आदान-प्रदान कर सकने वाला अन्त:करण कितना दिव्य और अलौकिक है इसकी चर्चा शब्दों में कैसे की जाय?

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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