आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
सूक्ष्म चेतना का जो ईश्वरीय अनुदान मनुष्य को मिला है उसकी थोड़ी सी झाँकी कभी-कभी योगी तपस्वी आत्म-ज्ञानी करते हैं। ब्रह्माण्ड की समस्त सत्ता और महत्ता बीज रूप में मनुष्य के भीतर विद्यमान है। इसे विकसित प्रकाशित भर करने की चेष्टा, साधना विज्ञान करता है। भौतिक सिद्धियाँ और दिव्य विभतियों का इतना बड़ा भाण्डागार मानवीय चेतना में सन्निहित है कि उसे विकसित करते चलने पर ईश्वरीय सृजन के इस विराट ब्रह्माण्ड के भीतर जो कुछ है उस सबके उपयोग और उपभोग की सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है। इतना ही नहीं जीव समग्र ब्रह्म बन सकता है।
कोई मूर्ति-मूर्तिकार नहीं बन सकती। कोई चित्र-चित्रकार नहीं बन सकता। कोई पुत्र-पिता का स्थानापन्न नहीं कहलाता। पर मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह यदि सीधे मार्ग पर चले तो ईश्वर भक्त ही नहीं-वह साक्षात् ईश्वर भी बन सकता है। अपने दर्पण में समस्त सृष्टि का दर्शन कर सकता है और अपनी आत्मा में सबको प्रतिष्ठित करके उसके साथ क्रीड़ा कल्लोल कर सकता है। मनुष्य की सम्भावनाएँ असीम हैं। जितना असीम परमात्मा है उतना ही महान उसका पुत्र-आत्मा भी है।
मूर्तिकार ने इस मूर्ति को बनाने में अपनी कला का अन्त कर दिया है। ईश्वर कितना महान और अद्भुत है, उसे देखना, जानना हो तो उसकी कलाकृति मानव प्रतिमा को बारीकी से देखा जाय। उसके कण-कण से जो सुन्दरता-गरिमा टपकती है वह अपने आपमें अनुपम है। ऐसा सर्वांगपूर्ण सृजन इस विश्व ब्रह्माण्ड में अन्यत्र कहीं भी ढूँढ़े नहीं मिल सकता।
ईश्वर का अरमान पूरा हो गया और क्रिया-कलाप सम्पन्न। अब हमारा कर्तव्य आरम्भ होता है कि उस कर्तव्य को कलुषित और कलंकित न करें। सष्टा की गरिमा को गिरने न दें और उन अरमानों को चोट न पहुँचायें जिन्हें लेकर सृष्टा ने इतनी तीव्र आकांक्षा की और सृजन का कष्ट उठाया।
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