आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
हमें चाहिए कि अपने स्वाभाविक और ईश्वर के सम्मान को समझें और अपना स्तर वैसा रखें जिससे आत्मा और परमात्मा का गौरव गिरने न पाये। निकृष्ट गतिविधियाँ अपनाकर हम अपने को कलंकित नहीं करते वरन् ईश्वर की गरिमा को भी गिराते हैं। हमें प्रतिष्ठित होकर जीना चाहिए। अपनी और अपने सृजेता की प्रतिष्ठा को नष्ट न होने देना चाहिए।
अपनी प्रतिकृति-मनुष्य के रूप में बनाने का- उसमें अपनी समस्त कला को समाविष्ट करने का ईश्वरीय प्रयोजन यह रहा है कि उसे ऐसा साथी और सहायक प्राप्त हो सके जो उसकी सृष्टि को सुरम्य एवं सुविकसित बनाने में उसका हाथ बँटाये।
सहायकों की इच्छा करना उचित भी है और स्वाभाविक भी। सरकारी तंत्र, अधिकारी कर्मचारियों की सहायता से चलता है। अकेला शासक सुविस्तृत शासन तंत्र की व्यवस्था कैसे चलाये? कल-कारखानों में एकाकी मालिक सब काम कहाँ करता है। कारीगरों और श्रमिकों की सहायता से ही उस संस्थान की गतिविधियाँ चलती हैं। ईश्वर के इतने बड़े राज्य में असंख्य प्रकार के क्रिया कलापों के सञ्चालन में यदि साथी सहायक की-अधिकारी कर्मचारी की आवश्यकता समझी गई हो तो यह उसका औचित्य भी है।
ईश्वर की सर्वोत्तम कलाकृति दर्शाने भर के लिए मनुष्य का सृजन नहीं हुआ वरन् उसे इसलिए भी साधन सम्पन्न सत्ता के रूप में विनिर्मित किया गया है कि वह इस सृष्टि को सुरभित, सुव्यवस्थित, सुन्दर और समुन्नत बनाने में अपना बढ़-चढ़कर योगदान प्रस्तुत करे। स्वयं इस तरह रहे जिससे दूसरों को अपने चलने का अनुकरणीय दिशा ज्ञान मिलता रहे। उसका कर्तृत्व ऐसा हो जिससे अव्यवस्था को व्यवस्था में उच्छृङ्खलता को शालीनता में निकृष्टता को उत्कृष्टता में-कुरूपता को सुन्दरता में परिणत किया जा सकना सम्भव हो सके।
हम ईश्वर के अरमान, श्रम और कौशल को निष्फल न होने दें। ऐसा जीवन जियें जो इस अनुपम सृजन की पग-पग पर सार्थकता सिद्ध कर सके।
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