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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मोत्कर्ष के लिये उपासना की अनिवार्य आवश्यकता


शरीर को नित्य स्नान कराना पड़ता है, वस्त्र नित्य धोने पड़ते हैं, कमरे में बुहारी रोज लगानी पड़ती है और बर्तन रोज ही माँजने पड़ते हैं। कारण यह है कि मलीनता की उत्पत्ति भी अन्य बातों की तरह रोज ही होती है। एक बार की सफाई सदा का काम नहीं चला सकती। मन को एक बार स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन मनन आदि से शुद्ध कर दिया जाय तो समाधान होने के बाद भी वह सदा उसी स्थिति में बना रहेगा ऐसी आशा नहीं की जानी चाहिये।

अभी आकाश साफ है अभी उस पर धूलि, आँधी, कुहरा, बादल छाने लगें तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं। एक बार की क्षमता-समझाया हुआ मन सदा उसी निर्मल स्थिति में बना रहेगा इसका कोई भरोसा नहीं। मलीनता शरीर, वस्त्र, बर्तन, कमरे आदि को ही आये दिन गन्दा नहीं करती मन को भी प्रभावित आच्छादित करती है कि अन्य सब मलीनताओं के निवारण की तरह मन पर छाने वाली मलीनता का भी नित्य परिष्कार आवश्यक एवं अनिवार्य मानकर चला जाय और उस परिशोधन को नित्य कर्मों में स्थान दिया जाय। उपासना का यही प्रयोजन है।

यह समझना भूल है कि पूजा करना ईश्वर पर ऐसा अहसान करना है जिसके बदले में उसे हमारी उचित अनुचित मनोकामनायें पूरी करनी ही चाहिए। ओछे स्तर के लोग ऐसा ही सोचते हैं और इसी प्रलोभन से पूजा-पत्री का ओंधा-सीधा ठाठा रोपते हैं। आधार ही गलत हो तो बात कैसे बने-पार कैसे पड़े? पूजा करने वालों से दोस्ती और न करने वालों से 'कुट्टी'। यदि ऐसी रीति-नीति अपनाने लगें तो फिर ईश्वर को समदर्शी कैसे कहा जा सकेगा? फिर संसार में कर्त्तव्य और पुरुषार्थ की आवश्यकता क्या रहेगी? यदि पूजा द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करके मनोकामना पूर्ण की जा सकती हैं तो फिर इतने सस्ते और सरल मार्ग को छोड़कर क्यों कोई कष्ट साध्य गतिविधियाँ अपनाने को तैयार होगा? यदि यह तथ्य सही होता तो मन्दिरों के पुजारी सर्व मनोरथ सम्पन्न हो गये होते और साधु पंडित जो ईश्वर का ही झण्डा उठाये फिरते हैं सर्व कामना सम्पन्न रहे होते। फिर उन्हें अभाव असन्तोष क्यों सताता? प्रत्यक्ष है कि यह वर्ग और भी अधिक दयनीय स्थिति में है। कारण कि उपासना को कामना पूर्ति का माध्यम समझा गया और आवश्यक कर्म निष्ठा से मुंह मोड़ लिया गया है। इस गलत आधार को मान्यता मिल जाने से आस्तिकता का उपकार नहीं हुआ वरन् उसे असत्य और संदिग्ध मानने की अनास्था ही बढ़ी।

प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को मन की-जीवन की स्वच्छता को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानना चाहिए और उसका साधन जुटाने के लिये उपासना का अवलम्बन लेना चाहिये। मन असीम क्षमताओं का भंडार है वह यदि मलीनताओं से भर जाय तो हमें अपार क्षति उठानी पड़ेगी। दाँत साफ न किये जायें तो उनमें कीड़ा लग जायगा और मुँह से बदबू आयेगी। शरीर को स्नान न करायें तो चमड़ी पर जमा हुआ मैल अनेक बीमारियाँ पैदा करेगा। मशीनों की सफाई न की जाय तो पुों में जमा हुआ कीचड़ उनका ठीक तरह से काम करना ही असम्भव कर देगा। सफाई अपने आपमें एक आवश्यक कर्म है। मेहतर, धोबी, कहार जैसे अनेक वर्ग इन्हीं कामों में जुटे रहते हैं। साबुन, फिनायल बनाने की फैक्टरियों से लेकर दन्त मंजनों तक के विशालकाय कारखाने गन्दगी के निराकरण के साधन बनाने में ही लगे रहते हैं। मन इस सबसे ऊपर है यदि उस पर निरन्तर चढ़ते रहने वाली मलीनता की उपेक्षा की गयी तो वह बढ़ते बढ़ते इतनी अधिक हो जायेगी कि हमारा अन्तरङ्ग ही नहीं बहिरङ्ग जीवन भी अव्यवस्थाओं, अस्त-व्यस्तताओं और अवांछनीयता से भरा-घिरा दीखेगा।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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