लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

111 पाठक हैं

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित करने की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्बाध गति से चलता रहे। नित्य का अभ्यास ही किसी महत्वपूर्ण विषय में स्थिरता और प्रखरता बनाये रह सकता है। यदि पहलवान लोग नित्य का व्यायाम छोड़ दें, फौजी सैनिक परेड की उपेक्षा कर दें तो फिर उनकी प्रवीणता कुछ ही दिन में अस्त-व्यस्त हो जायेगी। स्कूली पढ़ाई छोड़ने के बाद जिन्हें फिर कभी पुस्तकें उलटने का अवसर नहीं मिलता वे उस समय के सारे प्रशिक्षण भूल जाते हैं। याद केवल उतना ही अंश रहता है जितना काम में आता रहता है। मन की भी यही स्थिति है, वह पशु प्रवृत्तियों के निम्रगामी प्रवाह में तो अनायास ही बहता रहता है, पर यदि उसे उच्च स्तर पर बनाये चढ़ाये रहना हो तो पतंग उड़ाने वालों की तरह बहुत कुछ पुरुषार्थ करना होता है। पानी को कुएँ से निकालने टङ्की तक पहुँचाने में नित्य ही प्रयत्न करना पड़ता है पर नालियाँ अपने आप चलती रहती हैं। गिरा हुआ पानी अपने आप नीचे ढुलकता जाता है और उसको बिना किसी यन्त्र मशीन या प्रयास के नालियाँ बहती रहती हैं। निकृष्ट बनाना हो तो संचित पशु प्रवृत्ति को स्वच्छन्द छोड़ देना पर्याप्त है वे जीवन वृक्ष पर अमर बेल की तरह छा जायेंगी पर यदि उत्कृष्टता का उद्यान लगाना हो तो उसके लिये चतुर माली जैसा कलाकौशल एवं मनोयोग नियोजित करना पड़ेगा। उपासना मनःक्षेत्र को सुरभित उद्यान की तरह फल-फूलों से लदा हुआ बनाने के कुशल पुरुषार्थ की तरह ही समझी जानी चाहिए। वस्तुत: मनोकामनायें पूर्ण करने का यह विवेक संगत एवं यथार्थ मार्ग है। मन देवताओं का भी देवता है। यदि उसे साध सँभाल लिया जाय तो वह कल्पवृक्ष से कम नहीं अधिक ही उपयोगी एवं वरदानी सिद्ध होता है। उपासना इस मन कल्प वृक्ष को सुविकसित बनाने की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था का ही नाम है।

आत्मोत्कर्ष में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपासना को अपने नित्य क्रम में सम्मिलित करना ही चाहिये। यह नहीं सोचना चाहिये कि हम ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं फिर उपासना की क्या जरूरत। लुहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि शिल्पी अपने श्रम और प्रयोजन में लगे रहते हुए भी यह आवश्यक समझते हैं कि उनके औजारों पर जल्दी-जल्दी धार धरी जाती रहे। नाई अपने काम में ठीक तरह लगा रहता है पर उस्तरा तो उसे बार-बार तेज करना पड़ता है। मन ही वह औजार है जिससे क्रिया कलापों को ठीक तरह करते रह सकना सम्भव होता है। यदि भोथरा होने लगे तो फिर कर्तृत्व का स्तर भी गिरने लगेगा। इसलिये जहाँ अन्य अनेक कार्यों में समय लगाया जाता है वहाँ मन की मलीनता को स्वच्छ करने और उसे प्रखर बनाने के प्रयास को भी नित्य का एक आवश्यक कर्तव्य माना जाना चाहिए। पेट की भूख बुझाने के लिये बार-बार भोजन करना पड़ता है। आत्मा की भूख बुझाने के लिये भी उसे उपासना का आहार बार-बार नित्य ही दिया जाना आवश्यक है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book