आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
यह स्थिति स्वभावत: मन को असमंजस में डालती है। उसी प्रक्रिया का अवलम्बन करने से एक को लाभ एक को हानि ऐसा क्यों? एक को सिद्धि दूसरे के हाथ निराशा यह किसलिये? कैसे? वही देवता, वही मन्त्र वही विधि, एक की फलित एक की निष्फल इसका क्या कारण? यदि भगवान या देवता और उनकी उपासना अन्ध-विश्वास है तो फिर इससे कितने ही लाभान्वित क्यों होते हैं? यदि सत्य है तो उससे कितनों को ही निराश क्यों होना पड़ता है। जल हर किसी की प्यास बुझाता है, सूरज हर किसी को गर्मी रोशनी देता है फिर देवता और उनके उपासना क्रम में परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ क्यों?
इस उलझन पर अनेक दृष्टियों से विचार करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि देवता या मन्त्रों में जितनी अलौकिकता दृष्टि-गोचर होती है, उनसे लाभान्वित हो सकने की पात्रता साधक में होना नितान्त आवश्यक है। मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेना इस सन्दर्भ में अपर्याप्त है। तेज धार की तलवार में सिर काटने की क्षमता है इसमें संदेह नहीं पर वह क्षमता सही सिद्ध हो इसके लिये चलाने वाले का भुजबल, साहस एवं कौशल भी आवश्यक है। बिजली में सामर्थ्य की कमी नहीं पर उससे लाभान्वित होने के लिये उसी प्रकार के यन्त्र चाहिये। यन्त्र उपकरणों के अभाव में बिजली का उपयोग व्यर्थ ही होगा अनर्थ मूलक भी बन जाता है।
स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती है। अमृत उसी को जीवन दे सकता है जिसका मुँह खुला हुआ है। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वाति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक यही बात देव उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत सेवन का लाभ वही उठा सकता है जिसकी पाचन क्रिया ठीक हो। देवता और मन्त्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं जिन्होंने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर सेविचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है।
औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है जो बताये हुये अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अत: पहले आत्म उपासना फिर देव उपासना की शिक्षा ब्रह्म विद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है। लोग उतावली में मन्त्र और देवता के भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं इससे पहली आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते। फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाये, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है उसे उतना ही मिलेगा। निरन्तर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुये पात्रों में उतना ही जल रह पाता है जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बडी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता देवता और मन्त्रों से लाभ उठाने के लिये भी पात्रता नितान्त आवश्यक है।
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