आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
रङ्गरेज कपड़ा रङ्गने की प्रक्रिया उसकी धुलाई से आरम्भ करता है। यदि मैला कपड़ा रङ्गने के लिये दिया जाय तो पहले उसे धोवेगा। धुले हुए कपड़े पर ही रङ्ग चढ़ना या चढ़ाया जाना सम्भव होता है। उपासना को रँगाई कह सकते हैं और साधना को धुलाई। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इनमें प्रधान और गौण का वर्गीकरण करना हो तो साधना को प्रधान और उपासना को गौण मानना पड़ेगा। धुला वस्त्र बिना रंगे भी अपनी गरिमा बनाये रह सकता है पर मैला वस्त्र रङ्ग को बर्बाद करेगा और रंगरेज को बदनाम । स्वयं तो उपहासास्पद बना ही रहेगा। मैले कपड़े पर रङ्ग चढ़ाने की सूझबूझ भी भोंडी ही मानी जायेगी इस प्रकार का किया गया श्रम भी सार्थक न रहेगा।
आत्मिक प्रगति के पथिक आमतौर से यही भूल करते रहते हैं और असफलता का दोष उस पुण्य प्रक्रिया को देते हैं जिसे सही ढङ्ग से अपनाने वाले सदा कृतकृत्य होते हैं। वस्तुतः वह भूल पथिकों की नहीं उनके मार्गदर्शकों की है जिन्होंने बहुमूल्य मँहगी वस्तु को सस्ती बताकर लोगों को आकर्षित करने भर का ध्यान रखा और यह भूल गये कि अभीष्ट प्रतिफल न मिलने पर जो निराशा और अविश्वास भरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी उसका क्या परिणाम होगा। सस्ते प्रलोभनों से भ्रमाया व्यक्ति आरम्भ से अति उत्साहित हो सकता है पर उसकी निराशाजनक प्रतिक्रिया नास्तिकता के रूप में ही परिणत होकर रहेगी।
अध्यात्म तत्वज्ञान के मूल आधार से अपरिचित किन्त उसकी ध्वजा उड़ाने वाले तथाकथित 'गुरु' लोग ओंधी सीधी पुस्तकें रचकर यह मिथ्या मान्यता फैलाते रहे हैं कि अमुक पूजा अर्चा करने से उन्हें पाप फल के दण्ड भुगतने की छूट मिल जायेगी। यह प्रतिपादन लोगों को बहुत ही आकर्षक लगता है। क्योंकि अनाचार अपनाने वाले प्रत्यक्षतः सदाचार परायण लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त कर लेते हैं। छल-छद्म का परिणाम अन्ततः बुरा ही क्यों न हो पर तत्काल तो उन हथकण्डों से लाभ मिल ही जाता है। पाप-पथ अपनाने वाले असुर-देवताओं से अधिक बलिष्ठ रहे हैं यह स्पष्ट है। पीछे भले ही उनकी दुर्गति हुई हो पर आरम्भिक लाभ तो इन्हें ही मिलता है। देवत्व प्राप्ति का आरम्भिक कार्य तप साधना की कष्ट कर प्रक्रिया से आरम्भ होता है। लम्बी दूरी तक उस मार्ग पर चलने के बाद ही देव पुरुष आनन्द उल्लास प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में तात्कालिक लाभ को प्रधानता देने वाले–अदूरदर्शी लोग कुमार्ग गामिता के सहारे तुरन्त लाभान्वित होने की रीति-नीति अपनाते हैं, पर उन्हें यह खटका बना रहता है कि कभी न कभी इन कुकर्मों का कष्टकारक प्रतिफल भोगना पड़ेगा। इस चिन्ता से तथाकथित धर्म गुरुओं के रचे भोंड़े फूहड़ ग्रन्थ मुक्ति दिला देते हैं। उनका कहना है अमुक माला जपने वाले या अमुक पूजा अर्चा करने वाले को पाप कर्मों के दण्ड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है। यह बहुत बड़ी बात है। यदि दण्ड का भय न रहे तो फिर पाप कर्मों द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों को छोड़ने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। इस प्रकार उपरोक्त आश्वासनों पर विश्वास करने वाले यह मान बैठते हैं कि उनके पाप कट गये। अब वे कुकर्मों के दण्ड से पूर्णतया छुटकारा पा चुके। भूतकाल में किये हुए या भविष्य में किये जाने वाले पापों के दण्ड से वह देवता या मन्त्र बचा लेगा जिसे थोड़ा-सा जप, स्तवन, पूजन आदि करके या किसी दूसरे से कराके सहज ही बहकाया, फुसलाया और अनुकूल बनाया जा सकता है।
इस मिथ्या मान्यता का आज बहुत प्रचलन है। हर कोई इसी सस्ते नुस्खे को दुहराता है। मतवादी यही ढोल पीटते हैं कि हमारे सम्प्रदाय में भर्ती हो जाने पर हमारा खुदा सारे गुनाह माफ कर देगा। इस बहकावे में आये बाहर से बताये हए कर्मकाण्ड करते रहते हैं और भीतर से पाप कर्मों में निर्भय होकर प्रवृत्त रहते हैं। धर्म की नीव पर प्रस्तुत की गयी मिथ्या मान्यताओं ने आज सर्वत्र यही स्थिति उत्पन्न कर दी है और सच्चा विशेषण करने पर पूजा-पाठ न करने वालों की अपेक्षा उस प्रक्रिया में निरत लोग अधिक अनैतिक और अवांछनीय गतिविधियों में प्रवृत्त पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में आत्मिक प्रगति सर्वथा असम्भव है। जब साधना का प्रथम चरण ही पूरा नहीं किया गया तो उपासना का दूसरा कैसे उठेगा। जब पहली मंजिल ही बनकर तैयार नहीं हुई तो भवन की दूसरी मंजिल बनाने की योजना कैसे पूर्ण होगी।
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