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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


उपासना से पाप नष्ट होने का वास्तविक अर्थ यह है कि ऐसा व्यक्ति जीवन साधना के प्रथम चरण का परिपालन करते हुए दुर्भावनाओं दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम समझेगा और उनसे सतर्कता पूर्वक विरत हो जायेगा, पाप नष्ट होने का अर्थ है पापकर्म करने की प्रवृत्ति का नाश, पर उल्टा अर्थ कर दिया गया पाप कर्मों के प्रतिफल का नाश। कदाचित ऐसी उलट वासी सही होती तो फिर इस संसार में पाप को ही पुण्य और कर्त्तव्य माना जाने लगता। फिर कोई भी पाप से न डरता। राजदण्ड से बचने की हजार तरकीवें हैं। उन्हें अपना कर अनाचारी लोग सहज ही निर्द्वन्द निश्चिन्त रह सकते हैं दैव दण्ड ही एक मात्र बंधन था सो इन धर्मध्वजियों ने उड़ा दिया। अब असुरता को स्वछन्द रूप से फलने फूलने और फैलाने का पूरा अवसर मिल गया। पाप कर्मों के दण्ड से मुक्ति दिलाने का आश्वासन पूजा-पाठ की कीमत पर जिनने भी दिया है उनने मानवीय आदर्शों और अध्यात्म के मूलभूत आधारों के साथ व्यभिचार किया है।

पाप और पुण्य का, उचित और अनुचित का अन्तर उनका दंड-पुरस्कार ही मानव-समाज के भौतिक मेरुदंड को सीधा रखे हुए है। यदि उसे ही तोड़ दिया जाय तो फिर व्यक्ति और समाज की आचार संहिता का ईश्वर ही रक्षक है। पूजा उपासना का प्रयोजन मनुष्य को ईश्वर-विश्वासी अर्थात् धर्म मर्यादाओं का पालन करने के लिए व्रत-बन्ध धारण किये रहने वाला है। यदि पूजा पाप-दंड से मुक्ति दिलाती है तो फिर यही कहना पड़ेगा कि वह नैतिक, मानवीय धार्मिक और आत्मिक मूलभूत आधारों को ही नष्ट करेगी। ऐसी दशा में यह पूजा वस्तुतः नास्तिकता से भी मँहगी पड़ेगी, पिछले दिनों वही हआ है यही बताया सिखाया गया है। कथा-वार्ताओं में हम यही सुनते पढ़ते हैं, गुरु लोगों के पास यही सबसे बड़ा आकर्षण अपने मत के पक्ष में है। भोले लोग सस्ते मोल में परमदंड की बहत विपत्ति से बचने के लिए फँसते हैं और दुहरी हानि भुगतते हैं। ईश्वरीय अकाट्य नियम इतने सरल नहीं हैं कि तनिक सी पूजा से छुई-मुई होकर सूख जायें। वे अत्यन्त कठोर हैं। विश्व का कणकण उनकी पकड़ में जकड़ा है। ईश्वर को कोई पूजे या गाली दे विश्व-व्यवस्था कर्मफल की अपरिहार्य प्रक्रिया में तनिक भी ढील करने वाली नहीं है। ऐसी दशा में पूजा जिस प्रलोभन से की गई थी, ईश्वर की प्रसन्नता की जिस आधार पर आशा बाँधी गई थी, वह बालू के महल की तरह ढह जाता है।

उपासना की असफलता का एक मात्र कारण है आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल 'साधना' की उपेक्षा। गुण-कर्म स्वभाव का परिष्कार साधना का मूलभूत उद्देश्य है। उसका स्वरूप है आत्म बोध, आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। यही आत्म देव का सच्चा पंचोपचार पूजन है। जो उसे कर सकता है उसी की पूजा उपासना सफल होती है। निराकार, निर्विकार परमेश्वर की साकार प्रतिमा उपासना को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाई जाती है। इसी प्रकार जल, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन के पंच विधि पूजा उपकरण प्रयुक्त किये जाते हैं। इस देवार्पण के पीछे जीवन साधना की ओर इंगित करने वाला गहरा तत्वज्ञान सन्निहित है। उसे यदि न समझा जाय और मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाय तो यही कहना पड़ेगा कि यथार्थता को भुला कर विडम्बना की उलझन में पैर फँसा दिया गया।

उपासना की पूर्व भूमिका जीवन साधना से आरम्भ होती है। तपश्चर्या का प्रयोजन मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों का निराकरण है। एक बार समझ लेना चाहिए कि साधना सर्फ पाउडर है और उपासना 'टिनोपाल' कपड़े को जर्क-वर्क धुला हुआ बनाना हो तो दोनों का उपयोग करना चाहिए। कपड़े को सर्फ में धोकर मल रहित करना चाहिए और तदनन्तर 'टिनोपाल' की नीली झलक देनी चाहिए। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि धोने में बहुत झंझट समझ कर उसे उपेक्षित विस्मृत कर दिया जाय और मात्र टिनोपाल के छींटे लगाकर चमचमाते वस्त्र पहनने की आशा रखी जाय।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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