आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
आत्मिक प्रगति के लिए उपासना का अपना महत्व है। जप आवश्यक है। आसन, प्राणायाम क्रिया, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान, समाधि की छै मंजली इमारत बनानी ही चाहिए पर उससे यह नियम का ईंट चूना नींव में गहराई तक भर के नींव पक्की कर लेनी चाहिए। मंत्रविद्या का महात्म्य बहुत है। योग साधना की गरिमा गगन चुम्बी है विविध-विधि उपासनायें चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करती हैं। ऋद्धिसिद्धियों की चर्चा काल्पनिक नहीं है, पर वह सारा आकर्षण विवरण, कथासार आकाश कुसम ही बना रहेगा जब तक साधना की पृष्ठभूमि को अनिवार्य मान कर न चला जायेगा।
ओछी मनोभूमि के व्यक्ति यदि किसी प्रकार किसी तन्त्र विधि से कुछ लाभ वरदान प्राप्त भी करलें तो भी वह अन्ततः उनके लिए विपत्ति ही सिद्ध होगी। आमाशय में अर्बुद और आंतों में व्रण से संत्रस्त रोगी यदि मिष्ठान्न पकवान खा भी ले तो उसके लिए वे बहुमूल्य और पौष्टिक होते हुए भी कुछ लाभ न पहुँचा सकेंगे। जबकि पेट के स्वस्थ सबल होने पर ज्वार, बाजरा भी पुष्टि कर सिद्ध होते हैं। रहस्यमय अनुष्ठान साधनों की मन्त्र प्रक्रिया एवं साधना विधि की गरिमा इन पंक्तियों में कम नहीं की जा रही है और न उनका महात्म्य मिथ्या बताया जा रहा है। यहाँ केवल यह कहा जा रहा है कि आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में जीवन साधना को आधार भूत मानना चाहिए और उपासना को उसकी सुसज्जा। बाल्यकाल पूरा करने के बाद ही यौवन आता है और साधना की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण होने से ही उपासना की द्वितीय कक्षा में प्रवेश मिलता है।
अच्छी उपज लेने के लिए केवल अच्छा बीज ही पर्याप्त नहीं, अच्छी भूमि भी होनी चाहिए। पूजा विधान बीज है और साधक की मनोभूमि खेत। किसान भूमि जोतने, सींचने संभालने में छै महीने लगाता है और बीज बोने में एक दिन । अन्तःकरण निर्मल बना लिया जाय तो थोड़ा सा मन्त्र साधन भी शबरी जैसे अनजान साधकों को भी सफलता के चरम लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। इसके विपरीत कर्म-काण्ड में पारंगत कठोर प्रयत्न रत होने पर भी मिली हुई सफलता उल्टी विनाशकारी होती है। दूषित मनोवृत्ति बनाये रहने के कारण रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर आदि को दुर्गति के गर्त में गिरना पड़ा। वह तप तथा वरदान उनके अहंकार और अनाचार को बढ़ाने में-सर्प को दूध पिलाने की तरह अनर्थ मूलक ही सिद्ध हुए।
उपासना कारतूस है और जीवन साधना बन्दूक। अच्छी बन्दूक होने पर ही कारतूस का चमत्कार देखा जा सकता है। बन्दूक रहित अकेला कारतूस तो थोड़ी आवाज करके फट ही सकता है उससे सिंह व्याघ्र का शिकार नहीं किया जा सकता। अनैतिक गतिविधियाँ और अवांछनीय विचारणायें यदि भरी रहें तो कोई साधक आत्मिक प्रगति का वास्तविक और चिरस्थायी लाभ न ले सकेगा। किसी प्रकार कुछ मिल भी जाय तो उससे जादूगरी जैसा चमत्कार दिखा कर थोड़े दिन यश लिप्सा पूरी की जा सकती है। वास्तविक लाभ न अपना हो सकता है और न दूसरों का।
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