आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
अस्तु आत्मबल से संबन्धित सिद्धियाँ और आत्म-कल्याण के साथ जुड़ी हुई विभूतियाँ प्राप्त करने के लिये जो वस्तुतः निष्ठावान् हों उन्हें अपने गुण-कर्म स्वभाव पर गहरी दृष्टि डालनी चाहिए और जहाँ कहीं छिद्र हों उन्हें बन्द करना चाहिए। फूटे हुए बर्तन और दुश्चरित्र व्यक्ति इन छिद्रों में अपना सारा उपासनात्मक उपार्जन गँवा बैठता है और उसे छूछ बनकर खाली हाथ रहना पड़ता है।
हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत वाली साधना इस दृष्टि से अति उपयोगी सिद्ध होती है। प्रातःकाल उठते ही यह अनुभव करना कि अब से लेकर सोते समय तक के लिये ही आज का नया जन्म मिला है। इसके एक एक क्षण का सदुपयोग करना है। इस आधार पर दिनभर की पूरी दिनचर्या निर्धारित कर ली जाय। समय जैसी बहुमूल्य सम्पदा का एक कण भी बर्बाद होने की उसमें गुञ्जायश न रहे। एक भी अनाचार बन पड़ने की ढील न रखी जाय। निकृष्ट स्तर पर सोचने और हेय कर्म करने पर पूरा प्रतिबन्ध लगाया जाय। इस प्रकार नित्य कर्म से लेकर आजीविका उपार्जन तक संभाषण से लेकर कर्तत्व तक जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समावेश किया जाय। रात को सोते समय लेखा जोखा लिया जाय कि आज उत्कृष्टता और निकृष्टता में से किस का उपार्जन ज्यादा हुआ। पाप अधिक बना या पुण्य। भूलें प्रबल रहीं या सतर्कता जीती। इस प्रकार आत्म निरीक्षण करने के उपरान्त दूसरे दिन और भी अधिक सतर्क रहने और भी उत्तम दिनचर्या बनाने की तैयारी करते हुए निद्रा माता को मृत्यु समझ कर उसकी गोद में शान्ति-पूर्वक जाना चाहिए। यह क्रम निरन्तर जारी रखा जाय तो जीवन में क्रमशः अधिकाधिक पवित्रता का समावेश होता चला जाता है और तदनुरूप आत्मिक प्रगति तीव्र होती चली जाती है। प्रार्थना का स्वरूप स्तर और प्रभाव प्रार्थना ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्व-व्यापी और परम दयालु है, उसे हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। वह परम पिता और परम दयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा आवश्यकता पूरी करने के लिये उत्सक एवं तत्पर रहता है। फिर परम पिता और परम दयालु होने पर वह क्यों हमारी आवश्यकता को जानेगा नहीं। वह कहने पर ही हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनाई को समझे, यह तो ईश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुई। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों की अयाचित आवश्यकता भी पूरी करता है। तब अपने परम प्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा? वस्तुतः प्रार्थना का अर्थ याचना है ही नहीं। याचना अपने आपमें हेय है क्योंकि वह दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसमें जुड़ी हुई है जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही है। चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय या भगवान के सामने झोली फैलाई जाय, बात एक ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में की जाय चाहे भगवान के घर मन्दिर में बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया-चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिये शोभा नहीं देती।
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